एक जिद

यह तय करना काफी मुश्किल है कि तानाशाह किसी मुल्क का सत्यानाश अपनी नीतियों से ज्यादा करते हैं या अपनी जिद से? कोई नीति कब जिद बन जाती है और कोई जिद ही अकेली नीति कब रह जाती है, इसकी थाह पाना भी आसान नहीं होता।

इन दिनों उन नीतियों और जिदों की गणना चल रही है, जिनके चलते गोटबाया राजपक्षे ने उस पूरे श्रीलंका को ही दांव पर लगा दिया, जिसके लोगों ने उन्हें भारी समर्थन देकर अपना सिरमौर बनाया था।

उनकी इन नीतियों और जिदों की फेहरिस्त हालांकि बहुत लंबी नहीं है, लेकिन फिलहाल हम एक जिद को ले रहे हैं, जिसका नाम है, ऑर्गेनिक यानी जैविक खेती। 


गोटबाया अगर जैविक खेती की जिद न करते, तब भी वह श्रीलंका को जिस रास्ते पर ले गए थे, उससे इस देश पर भारी आर्थिक संकट टूटने ही थे।

ऊंचे पर्वतों और घने जंगलों वाला यह देश पिछले कुछ साल में जिस व्याधि का शिकार हुआ, चिकित्सा की भाषा में उसके लिए एक ही शब्द-समूह हो सकता है, ‘मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर’, यानी जब शरीर के कई अंग काम करना बंद कर देते हैं। इस तरह के मरीज की जो हालत होती है, वही इस समय श्रीलंका की हो गई है।

कृषि इनमें से महज एक अंग है, जिसकी कमर ऑर्गेनिक खेती की जिद ने तोड़ दी। अगर गोटबाया ऐसी जिद नहीं पालते, तो श्रीलंका में भले ही तमाम तरह की परेशानियां खड़ी हो जातीं, लेकिन वहां कम से कम भुखमरी की वैसी नौबत नहीं आती, जैसी फिलहाल आई हुई है।

वैसे गोटबाया ने अपने चुनाव घोषणापत्र में वादा किया था कि अगले दस साल में देश को रासायनिक खेती से मुक्त कर दिया जाएगा। इसमें कोई बड़ी बात भी नहीं थी, क्योंकि दुनिया के कई देश इस समय ऐसी ही बात कर रहे हैं।

स्विट्जरलैंड ने दावा किया है कि वह 2028 तक पूर्णत: जैविक खेती वाला देश बन जाएगा। मगर तब किसने सोचा था कि गोटबाया दस साल का कोई सिलसिला शुरू करें, उसके पहले ही उनका चुनावी वादा अचानक कहर बनकर टूट पड़ेगा।


गोटबाया ने बड़े गर्व के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा में यह घोषणा की थी कि श्रीलंका जैविक खेती करने वाला दुनिया का पहला देश बन चुका है। खेती से संबंधित सभी रसायनों के आयात पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी गई। अब वहां बाजार में न उर्वरक उपलब्ध थे, न कीटनाशक, न खर-पतवारनाशक, न फंगीसाइड।

एक चीज और नदारद थी, बिना इन रसायनों के कैसे खेती होती है, देश के किसान इसे दशकों पहले भूल चुके थे। कृषि वैज्ञानिकों और प्रशासकों को भी नहीं पता था कि इतने बड़े देश का पेट सिर्फ कंपोस्ट के बल पर किस तरह पालना है? इसके पहले कि इन पर सोचा जाता, हर तरफ से जय-जयकार शुरू हो चुकी थी।

पर्यावरण के लिए काम करने वाले वे एनजीओ, यानी गैर-सरकारी संगठन तो बल्लियों उछल रहे थे, जिनके लिए जैविक खेती उनकी परम आस्था थी। यह कहा जाने लगा कि गोटबाया ने पूरे देश को जहर से बचा लिया है और अब श्रीलंका के लोग दुनिया की सबसे सेहतमंद आबादी में बदल जाएंगे।

हम चाहें, तो इस औचक फैसले की पीछे एक मजबूरी भी देख सकते हैं। कोविड महामारी के कारण पर्यटन का वह धंधा पूरी तरह चौपट हो गया, जो श्रीलंका के लिए विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा जरिया था, और विदेशी मुद्रा बचाने के दबाव में गोटबाया ने रातोंरात यह फैसला कर लिया।

तानाशाही में यही होता है, मुश्किलें आसान जिद की ओर ले जाती हैं, समाधान की कठिन राहों की ओर नहीं। तभी पता चला कि श्रीलंका के पास कंपोस्ट उत्पादन की इतनी क्षमता नहीं है कि पूरे देश की खेती चल सके। न ही पर्याप्त जैविक कीटनाशक हैं।

मगर वह जिद ही क्या, जो इतनी जल्द टूट जाए! तय हुआ कि जैविक खाद का आयात किया जाएगा। बात विदेशी मुद्रा बचाने से शुरू हुई थी, अब विदेशी मुद्रा का इस्तेमाल कूड़ा आयात करने में हो रहा था। डर था कि इस खाद के साथ कई नई खर-पतवार के बीज और अनजान कीट-पतंगों के अंडे भी आ सकते हैं, लेकिन किसे परवाह थी! 
माना जाता है कि वर्तमान व्यावसायिक खेती के मुकाबले जैविक खेती में उत्पादन 25 फीसदी तक कम हो सकता है। यही कारण है कि कई पर्यावरण वैज्ञानिक इसका विरोध करते हैं, क्योंकि इसका अर्थ होगा, लोगों का पेट भरने के लिए अतिरिक्त जगह पर खेती करना, यानी बड़े पैमाने पर जंगलों को काटना।

श्रीलंका में तो इसके साथ ही अव्यवस्था भी जुड़ गई और कई फसलों की उपज आधी भी नहीं मिली। इस सबने किसानों की कमर तोड़ दी और जनता को भुखमरी के कगार पर खड़ा कर दिया। इनमें रबर, चाय, दालचीनी, कुनैन और इलायची जैसी वे फसलें भी शामिल थीं, जिनका श्रीलंका निर्यात करता है। जिद ने विदेशी मुद्रा पाने के बाकी रास्ते भी बंद कर दिए।

ये ज्यादातर वे फसलें हैं, जिनका उत्पादन अंग्रेजों ने 1803 के बाद यहां बड़े पैमाने पर निर्यात के लिए किया था। इसके लिए जंगल काटे गए थे और लोगों को बागान मजदूर बनने के लिए मजबूर किया गया था।

ब्रिटिश सरकार की इन नीतियों ने अपनी मस्त जिंदगी जीने वाले इस द्वीप में जो उथल-पुथल पैदा की, उसकी कहानियां अब औपनिवेशिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। मगर गोटबाया ने जो उथल-पुथल अपने देश को दी, वह उससे कहीं बड़ी थी और उससे कहीं कम समय में ही पूरे देश में फैल गई।


यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि आज की दुनिया में गोटबाया अकेले जिद्दी नहीं हैं। रूस के व्लादिमीर पुतिन की जिद तो हम देख ही रहे हैं। एक वह भी जिद है, जिसने ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करके ही दम लिया।

एक वह भी जिद थी, जब डोनाल्ड ट्रंप मलेरिया की दवा से ही कोविड का इलाज करने पर तुल गए थे। ऐसी कुछ जिद हमारे आसपास भी दिख जाएंगी। मगर एक फर्क भी है। अमेरिका के वैज्ञानिक संस्थानों की स्वायत्तता के सामने ट्रंप की जिद ज्यादा टिक नहीं सकी।

मगर यह श्रीलंका जैसे देशों में नहीं हो सकता। वहां ऐसी संस्थाएं थीं ही नहीं, जो गोटबाया की जिद के सामने खड़े होने का साहस कर पातीं। अगर सचमुच की स्वायत्त लोकतांत्रिक संस्थाएं वहां होतीं, तो शायद श्रीलंका की हथेली पर गोटबाया जैसी तानाशाही की भाग्यरेखा कभी बनती ही नहीं।

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