घटती विकास दर

भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ी तीन खबरें अभी सुर्खियों में हैं। पहली, साल की दूसरी तिमाही में विकास की रफ्तार धीमी पड़ी है और जुलाई-सितंबर के दरम्यान विकास दर घटकर 6.3 फीसदी पर आ गई। दूसरी, विश्व बैंक ने कहा है कि विदेश में कमा रहे भारतीयों ने इस साल देश में रिकॉर्ड 100 अरब डॉलर भेजे। और तीसरी, विदेशी निवेशकों में बढ़ते विश्वास से भारतीय शेयर बाजार में तेजी कायम है और दिसंबर के पहले दिन भी इसने मजबूत शुरुआत की। क्या यह देश की आर्थिक सेहत के लिए सुखद है? इस प्रश्न का जवाब ढूंढ़ने से पहले हमें मुख्य आर्थिक सलाहकार वीए नागेश्वरन के बयान पर गौर करना चाहिए, जिन्होंने कहा है कि यह वक्त सावधानी से आगे बढ़ने का है।
असल में, संकट के दौरान अर्थव्यवस्था लुढ़कती ही है और यह गिरावट जितनी तेज होती है, अगले साल उछाल उतनी ही अधिक दिखती है। इसी कारण ‘विकास दर’ के बजाय ‘सकल घरेलू उत्पाद के स्तर’ से तुलना करने की वकालत की जाती है और महामारी से पहले, यानी 2019-20 के बरअक्स आज हमारा विकास बहुत ज्यादा नहीं दिखता। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अगली दोनों तिमाही में कम वृद्धि दर का अनुमान लगाया है। मगर चिंता की बात महज वृद्धि दर नहीं है। अर्थव्यवस्था में कई सेक्टर अब भी बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं। फिर, कृषि को छोड़कर तिमाही के आंकड़ों में असंगठित क्षेत्र को शामिल नहीं किया जाता, जिसके कारण उसकी सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती। हालांकि, इस बार कृषि के आंकड़े भी भरोसा नहीं जगा रहे। इस साल दूसरी तिमाही में पूर्वी भारत के कई हिस्सों में सूखे जैसी स्थिति थी। बिहार, बंगाल, ओडिशा जैसे कई धान-उत्पादक राज्यों में बुआई भी कम की गई। मगर, दूसरी तिमाही के आंकड़े बता रहे हैं कि कृषि में करीब साढ़े चार फीसदी की वृद्धि हुई है, जो समझ से परे है।
दूसरी तिमाही के आंकडे़ यह मुनादी कर रहे हैं कि संगठित क्षेत्र अब रफ्तार पकड़ने लगा है, लेकिन इसकी कीमत असंगठित क्षेत्र चुका रहा है, क्योंकि उसकी मांग संगठित क्षेत्र ने हड़प ली है। बावजूद इसके खनन और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नकारात्मक वृद्धि चिंताजनक है। सर्विस सेक्टर ने अच्छा प्रदर्शन किया है, क्योंकि पिछले साल इसी तिमाही में कोरोना की दूसरी लहर में यह बमुश्किल सांस ले पा रहा था। हां, विमानन कंपनियां अब भी यात्रियों के मामले में 2019-20 के स्तर तक नहीं पहुंच सकी हैं।
देखा जाए, तो शेयर बाजार में तेजी की बड़ी वजह यही है। रिजर्व बैंक ने भारतीय शेयर बाजार की 2,700 कंपनियों का जो आंकड़ा जारी किया है, उसके मुताबिक, इन कंपनियों की बिक्री में 41 फीसदी और लाभ में तकरीबन 20 प्रतिशत का उछाल आया है। इनके फायदे निवेशकों को लुभा रहे हैं। चूंकि बैंकों की ब्याज दर बढ़ने के बावजूद अब भी कम है, इसलिए संगठित क्षेत्र के वेतनभोगियों की बचत शेयर बाजार में पहुंच गई है। आंकड़ों की मानें, तो बैंकों से निकासी बढ़ी है, लेकिन उस अनुपात में पैसे जमा नहीं हो रहे। विदेशी निवेशक भी इसके आकर्षण से नहीं बच पाए हैं। स्थिति यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में बैंक-दर में वृद्धि के बावजूद तीन-साढ़े तीन फीसदी तक रिटर्न मिल पाता है, जबकि भारत में शेयर बाजार से 10 फीसदी तक रिटर्न संभव है। 
इससे यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि देश में सब कुछ बेहतर है। संगठित क्षेत्र अपने बूते यह सब नहीं कर रहा। पिछले कुछ महीनों में असंगठित क्षेत्र की कई कंपनियां दम तोड़ चुकी हैं। हिंदुस्तान युनिलिवर लिमिटेड की एक रिपोर्ट कहती है कि उनका मार्केट शेयर इसलिए बढ़ा, क्योंकि छोटी-छोटी कंपनियां परिस्थितियों से मुकाबला नहीं कर सकीं और उनकी मांग संगठित क्षेत्र के हिस्से में आ गई। यह सभी उद्योगों में हुआ है। पारले-जी बिस्कुट की बिक्री ही इसलिए बढ़ी, क्योंकि छोटी-छोटी कंपनियां प्रतिस्पद्र्धा से बाहर हो चुकी हैं। रही बात, विदेश से भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाले धन की, तो मूलत: दो तबके को यह सहूलियत हासिल है। एक संपन्न तबका है, जिसके परिजन इसलिए विदेश से पैसे भेजते हैं, ताकि भारत में उनका कुछ निवेश हो सके। यह निवेश शेयर बाजार में होता है या फिर रियल एस्टेट में। जबकि, दूसरा तबका विपन्न है, जिसके परिजन इस उम्मीद में पैसे भेज रहे हैं कि संकट के दौर में उनकी जितनी खराब हालत हुई, उससे वे पार पा सकें। 
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) भी अनवरत भारतीय अर्थव्यवस्था के पांव खींच रहा है। इससे सूक्ष्म व लघु उद्योग पार नहीं पा रहे। बेशक इन दोनों को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है, लेकिन संगठित क्षेत्र की कंपनियों को मिलने वाले इनपुट क्रेडिट इनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। इनपुट क्रेडिट जैसी सुविधा न रहने के कारण इनके उत्पाद महंगे हो गए हैं। लिहाजा, जीएसटी में सुधार बहुत जरूरी है। इसे ‘लास्ट प्वॉइंट टैक्स’ बना देना चाहिए, ताकि इनपुट क्रेडिट जैसी व्यवस्था खत्म हो सके।
बाजार में मांग को बढ़ाना आवश्यक है। बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए असंगठित और संगठित क्षेत्रों को साथ मिलकर चलना चाहिए, लेकिन अभी संगठित क्षेत्र में पर्याप्त तेजी दिख रही है। जाहिर है, असंगठित क्षेत्र को समर्थन की दरकार है। मध्यम, लघु व सूक्ष्म कंपनियों के लिए जब भी नीतियां बनाई जाती हैं, तो फायदा मध्यवर्ती कंपनियां उठा ले जाती हैं। हमें सूक्ष्म व लघु कंपनियों के लिए विशेष नीतियां बनानी होंगी। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि एमएसएमई सेक्टर के 97.5 फीसदी कामगार सूक्ष्म व लघु कंपनियों में ही काम करते हैं। 
इसी तरह, 45 फीसदी कामगार कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं। इनके हाथ इतने मजबूत करने होंगे कि उनमें खरीद की क्षमता बढ़े, तभी मांग बढ़ेगी। संगठित क्षेत्र को भी इससे लाभ होगा। आपूर्ति-शृंखला की मुश्किलें भी इससे कम होंगी। हम बेशक बाहरी कारकों (चीन की सख्त कोविड-नीति, यूक्रेन जंग) को काबू नहीं कर सकते, पर घरेलू प्रयास जरूर कर सकते हैं। चूंकि अभी कर-राजस्व की स्थिति अच्छी है, तो क्यों न पेट्रो उत्पादों पर वैट कम करने के प्रयास किए जाएं, ताकि महंगाई में कमी हो? अभी मौद्रिक नीति की नहीं, वित्त नीति की जरूरत है। अगर रिजर्व बैंक यूं ही दरों को बढ़ाता रहा, तो बाजार में मांग कम हो जाएगी। यानी, इस समय वित्त मंत्रालय को मोर्चा संभालना चाहिए। 

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