जेब पर बोझ 

चीनी कैलेंडर के हिसाब से 2022 बाघ का वर्ष था। हिम्मत और हौसले का साल। सच मानें, तो यह पूरा साल हर मोर्चे पर हिम्मत और हौसले का इम्तिहान ही लेता रहा। साल खत्म होते-होते यूं लग रहा है, मानो सामने फिर पानी से भरी एक बड़ी खाई आ गई है, अब इसे पार करने के लिए छलांग लगानी है या पानी कम होने का इंतजार करना है? यह सवाल भारत की ही नहीं, दुनिया की अर्थव्यवस्था के सामने खड़ा है। इसकी वजह यह है कि कोरोना महामारी के प्रकोप से निकलने की भविष्यवाणी के साथ शुरू हुआ साल खत्म होते-होते न सिर्फ उस उम्मीद पर पानी फेर चुका है, बल्कि एक नई चिंता भी पैदा हो गई है कि क्या हम 1970 के दशक जैसे गंभीर आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़े हैं, जहां आर्थिक तरक्की कछुए की चाल पर पहुंच जाए और महंगाई खरगोश की रफ्तार से कुलांचे भरती दिखाई पड़े। यह चिंता विश्व बैंक के ‘इकोनॉमिक आउटलुक’ में जताई गई है। 
विश्व बैंक की चिंता पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को लेकर है। उसका अनुमान है कि यूक्रेन पर रूस के हमले से पैदा हुई महंगाई पूरी दुनिया को भारी पड़नेवाली है। विश्व बैंक को लगता है कि इस साल दुनिया की जीडीपी में 2.9 फीसदी की वृद्धि ही हो पाएगी। हालांकि, भारत की अर्थव्यवस्था पर विश्व बैंक का भरोसा कायम है। न सिर्फ कायम है, बल्कि उसे लगता है कि दुनिया भर में मंदी की चिंता व आशंका के बीच भारत ही है, जो सबसे अच्छी तरह इस परिस्थिति का मुकाबला कर सकता है। विश्व बैंक का अनुमान था कि वित्त वर्ष 2022-23 में भारत की जीडीपी 6.5 प्रतिशत बढ़ेगी, पर ताजा रिपोर्ट में उसने यह अनुमान बढ़ाकर 6.9 प्रतिशत कर दिया है। भारतीय बाजार में घरेलू मांग मजबूत रहेगी और इसके दम पर ही भारत दुनिया की तेजी से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्थाओं में एक रहेगा। 
उम्मीदों के बावजूद इस साल की सबसे बड़ी मुसीबत महंगाई ही रही। जनवरी में एक बार महंगाई का आंकड़ा भारतीय रिजर्व बैंक की बर्दाश्त की सीमा, यानी छह प्रतिशत के पार हुआ, तो फिर केंद्रीय बैंक की तमाम कोशिशों के बावजूद पूरे 11 महीने बाद नवंबर में ही यह बर्दाश्त के दायरे में लौट पाया। 
फिर भी यह मानने के एक से ज्यादा कारण हैं कि कोरोना महामारी की चपेट में दो साल बर्बाद होने के बाद कम से कम इस साल कुछ तो ऐसा हुआ कि साल खत्म होने पर चैन की सांस ली जा सके। महंगाई काबू में आती दिख रही है। यूक्रेन और रूस युद्ध से पैदा हुई तमाम परेशानियों के बावजूद अब ऐसा लग रहा है कि जिंदगी पटरी पर लौट सकती है। भारत की अर्थव्यवस्था में रफ्तार लौटती दिख रही है और कंपनियों की बैलेंस शीट तो यूं दिखती हैं, जैसे उनको कोई बूस्टर खुराक लग गई हो। महीने-दर-महीने जीएसटी वसूली का आंकड़ा नया रिकॉर्ड बनाता दिख रहा है और आयकर के मोर्चे पर भी खुशखबरी ही आ रही है। इसी का असर है कि वित्त मंत्री ने जब संसद में बजट के 3,25,756 करोड़ रुपये की अनुपूरक मांगों का प्रस्ताव रखा, तो सवालों के जवाब में उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि इस रकम को जुटाने के लिए सरकार कोई नया कर्ज नहीं लेगी। वित्त मंत्री ने कहा कि सात महीनों में ही पिछले साल के मुकाबले कर वसूली में 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, जो उन्हें भरोसा देती है कि सरकार को अपने खर्च के लिए जरूरी पैसा मिल जाएगा। 
दरअसल, इस साल एक पुराना सबक याद आया है कि सारी बीमारी का सबसे बड़ा इलाज खर्च बढ़ाना ही है। 1970 के दशक की जिस मंदी के लौटने की आशंका विश्व बैंक को सता रही है, उसका इलाज इसी तरह खर्च में जोरदार बढ़त के साथ ही किया गया था। अब भारत को देखें, तो पिछले साल के और उससे पहले के आंकड़े भी सवाल उठाते हैं कि आम आदमी का खर्च तो बढ़ रहा है, सरकार भी कुछ खर्च बढ़ा रही है, लेकिन बड़े उद्योगों को जितना निवेश करना चाहिए, वह क्यों नहीं हो रहा है? सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि साल के शुरुआती नौ महीनों में औद्योगिक निवेश के प्रस्तावों में 25 प्रतिशत की कमी आई है। पिछले साल के मुकाबले देखा जाए, तो निवेश की रकम में 10 प्रतिशत की गिरावट है। औद्योगिक निवेश को बढ़ावा देने के लिए बने विभाग डीपीआईआईटी के मुताबिक, इस साल के पहले नौ महीनों में जो निवेश प्रस्ताव आए हैं, वे तो 2020 के उस दौर से भी कम हैं, जिसके बीच लॉकडाउन से सब कुछ ठप हो गया था। इन आंकड़ों को बारीकी से देखने पर और भी बहुत कुछ पढ़ा जा सकता है, पर मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि महंगा ब्याज व अनिश्चित भविष्य अब भी बड़े कारोबारियों को हिम्मत दिखाने से रोक रहा है। 
साल खत्म होते वक्त यदि कुछ झलकियां याद करनी हों, तो इस साल अचानक बड़े हवाई अड्डों पर मची रेलमपेल भी भूली नहीं जा सकती। उससे निपटने का तरीका क्या नए हवाई अड्डे बनाना है या रेल, सड़क सुविधा को बेहतर करना? 
समय के साथ इलाज की समस्या भी बढ़ रही है। ऑक्सफैम का कहना है कि महंगे इलाज की वजह से हर सेकंड दो लोग गरीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं।
 पिछले साल इस बात पर काफी पीठ ठोकी गई थी कि देश में यूनिकॉर्न यानी सौ करोड़ डॉलर से ज्यादा हैसियत वाले उद्यमियों की गिनती तेजी से बढ़ी है, मगर इस साल उनमें से ज्यादातर की हालत खराब दिख रही है। जिन टेक कंपनियों ने शेयर बाजार में दस्तक दी थी, उनके निवेशक और प्रोमोटर, दोनों ही परेशानी में दिख रहे हैं। हालांकि, ऑक्सफैम का कहना है कि 2018 से 2022 के बीच भारत में हर रोज औसतन सत्तर नए मिलियनेयर बन जाते हैं। (हालांकि, मिलियन का मतलब दस लाख होता है, लेकिन यहां मिलियन का अर्थ दस लाख डॉलर या करीब आठ करोड़ रुपये माना जाता है।) इस साल करीब आठ हजार ऐसे डॉलर मिलियनेयरों के भारत छोड़कर जाने की बात गर्म रही और यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या पैसेवाले लोग देश छोड़कर भागते रहेंगे? 
2022 खत्म होते-होते चीन से कोरोना महामारी की खौफनाक खबरें आ रही हैं, अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ सकता है। दुनिया भर के बड़े निवेशकों के सामने बेहतर विकल्प के तौर पर भारत खड़ा हो सकेगा? 2022 यह सवाल छोड़कर जा रहा है और 2023 पर जिम्मेदारी होगी इसका जवाब देने की।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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