सता रही गरीबी

अभी यह बहस गरम है कि पिछले एक दशक में गरीबी की क्या स्थिति रही? यह एक स्वाभाविक जिज्ञासा है, विशेषकर यह देखते हुए कि इस दशक में नीतिगत और प्राकृतिक, दोनों घटनाएं घटित हुईं। साल 2014 और 2015 सूखे की भेंट चढ़ गए, फिर नोटबंदी हुई, उसके बाद जीएसटी लागू किया गया और अंत में कोरोना-संक्रमण; अर्थव्यवस्था पर इन सबका स्पष्ट प्रभाव पड़ा और औसत विकास दर पिछले तीन दशकों में सबसे कम हो गई। इसमें आखिर क्या नफा और कितना नुकसान हुआ? जहां तक गरीबी उन्मूलन का सवाल है, तो इस मोर्चे पर पिछले दशक में हमें कामयाबी नहीं मिली, पर आर्थिक विषमता घटाने में हम जरूर सफल हुए हैं।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी उपभोग व्यय का आंकड़ा असमानता मापने का आधार रहा है। मगर 2011-12 के बाद उपभोग सर्वेक्षण न होने के कारण इस बाबत ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है। 2017-18 का पिछला सर्वेक्षण सरकार ने बिना कोई ठोस वजह बताए खारिज कर दिया था। मगर इसकी लीक हुई सूचनाएं बता रही थीं कि 2011-12 और 2017-18 के दरम्यान देश में गरीबी बढ़ी है।

आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आंकड़ों ने 2017-18 के बाद उपभोग व्यय व श्रमिक आय में गिरावट की बात कही थी। खपत सर्वेक्षण के आंकड़ों से भी पता चला था कि नाममात्र ही सही, लेकिन असमानता कम हुई है। असमानता को मापने का एक मापक गिनी भी है।

गांवों में 2011-12 की 28.7 की तुलना में 2017-18 में गिनी गुणांक 25.8 था, जबकि शहरों में इसी अवधि के दौरान यह गुणांक 36.7 से घटकर 32.9 हो गया। पूंजीगत असमानता को आंकने वाले अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण (एआईडीआईएस) ने भी इसकी पुष्टि की है। उसने भले ही खपत व पीएलएफएस सर्वेक्षणों की तरह तेज गिरावट नहीं दिखाई, लेकिन यह बताया कि 2019 में संपत्ति में असमानता नहीं बढ़ी है या 2012 के स्तर पर स्थिर है। हां, कुछ निजी सर्वे बता रहे हैं कि असमानता बढ़ी है, लेकिन इनमें वृद्धि बहुत मामूली जान पड़ती है।


इससे यही समझ आता है कि इस अवधि में असमानता घटी है, जबकि गरीबी बढ़ने के पर्याप्त सुबूत हैं। हालांकि, ऐसा क्यों हुआ, इस पहेली की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि अमीरों की आमदनी छिटककर गरीबों के हिस्से में जाने या गरीबों की आमदनी अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ने के कारण आर्थिक असमानता घटी है, बल्कि इसकी वजह मध्यवर्ग और संपन्न तबके की आय में आई गिरावट है।

अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती भी इसी की तस्दीक करती है, जिसने न केवल गरीबों को प्रभावित किया है, बल्कि अमीरों की आय के तमाम पहलुओं पर भी गहरा असर डाला है। पीएलएफएस के आंकड़े साफ बता रहे हैं कि नियमित श्रमिकों की कमाई दिहाड़ी मजदूरों की तुलना में तेजी से कम हुई है।


संभावना इस बात की भी है कि आर्थिक मुश्किलों से टकराने के मामले में गरीब कहीं अधिक बेहतर स्थिति में थे, क्योंकि पिछले दो दशकों में भारत में सामाजिक सुरक्षा का आधार व्यापक हुआ है। दरअसल, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लागू होने और महामारी के दौरान दिए जाने वाले मुफ्त राशन के बाद जन-वितरण प्रणाली का भी विस्तार हुआ है। यहां तक कि ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं ने भी गरीबों को मुश्किल वक्त से पार पाने में मदद की है। कहा जा सकता है कि कल्याणकारी उपायों से बेशक गरीबों को बुनियादी सुरक्षा मिली,पर मध्यवर्ग की आय कम होने से घटी विषमता आर्थिक विकास की स्थिरता पर सवाल उठाती है। 


ऐसे तथ्य भी हैं, जो बताते हैं कि गैर-जरूरी खर्च में कमी के कारण अर्थव्यवस्था में मांग की स्थिति कमजोर हुई है। यह न सिर्फ आर्थिक सुस्ती की एक वजह बनी, बल्कि इसने विकास के फिर से तेज होने की राह भी कमजोर की। यदि स्थिति यही रही, तो व्यापक आर्थिक सुधार की दिशा में हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा का जाल जरूर मजबूत होना चाहिए, पर भारत में आर्थिक सुधार की कोई भी कवायद विशाल मध्यमवर्ग की क्रय-शक्ति को बेहतर बनाए बिना अधूरी साबित होगी।

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