मजबूत होती आप की पकड़

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनावी नतीजों ने आम आदमी पार्टी के अंदर नई ऊर्जा का संचार किया है। तमाम एग्जिट पोल इसके कयास लगा भी रहे थे। हालांकि, उन सर्वेक्षणों में आप की बड़ी जीत का दावा किया गया था, लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि पार्टी ने बहुमत का आंकड़ा तो पार किया, लेकिन विधानसभा चुनावों की तरह एकतरफा जीत नहीं हासिल कर सकी। यही बात भाजपा के लिए सुकूनदेह है। वह पिछले 15 वर्षों से एमसीडी पर काबिज थी और कहा जा रहा था कि इस बार उसे सत्ता विरोधी रुझान की भारी कीमत चुकानी होगी। मगर तमाम अनुमानों को ध्वस्त करते हुए उसने न सिर्फ सीटों का शतक पूरा किया, बल्कि अपने वोट भी बढ़ाए हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि चुनाव चाहे स्थानीय निकाय के हों, विधानसभा के या फिर लोकसभा के, दिल्ली में उसके पास 35 फीसदी के आसपास ऐसे वोटर हैं, जो हर मतदान में उसके पक्ष में खड़े रहते हैं। दिल्ली के पिछले कुछ चुनाव इसकी पुष्टि भी करते हैं।
साल 2012 के एमसीडी चुनावों में भाजपा को लगभग 37 फीसदी वोट मिले थे और उसने 138 सीटें जीती थीं। 2017 में भी उसे कमोबेश इतने ही मत मिले, लेकिन सीटों की संख्या बढ़कर 181 हो गई। इस बार उसके हिस्से में करीब 39 फीसदी वोट आए हैं, पर सीटें घटकर 104 रह गई हैं। समान मत-प्रतिशत पर सीटों के घटने-बढ़ने का यही अर्थ है कि बदलाव गैर-भाजपा मतों में हो रहा है, जिसका बड़ा फायदा आप को मिला है। आप का गठन 2012 में हुआ और 2017 में यह पहली बार एमसीडी चुनावों में उतरी। चूंकि 2015 के विधानसभा चुनावों में उसे भारी बहुमत मिला था, इसलिए संभावना जताई गई थी कि 2017 में एमसीडी भी उसके खाते में आ जाएगी। मगर उस चुनाव में उसे 26 फीसदी मत मिले और 48 सीटों पर ही उसे जीत नसीब हुई। उल्लेखनीय यह भी है कि 2012 के चुनावों में कांग्रेस के पास 30 प्रतिशत वोट थे, जो 2017 में घटकर 21 प्रतिशत रह गए, जबकि बसपा को 2012 की तुलना में 2017 के एमसीडी चुनाव में छह प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ था। निर्दलीय उम्मीदवारों के समर्थक भी छह प्रतिशत कम हो गए थे। जाहिर है, इन सब वोटों का एक बड़ा हिस्सा आप के खाते में गया था। इस बार के चुनाव में भी कांग्रेस व अन्य तमाम पार्टियां मानो जमींदोज हो गई हैं। कांग्रेस का मत-प्रतिशत तो 10 के करीब आ गया है। नतीजतन, आप का वोट प्रतिशत 40 के पार पहुंच गया और एमसीडी पर उसका कब्जा हो गया है।
इन चुनावों का संदेश स्पष्ट है। विधानसभा के बाद स्थानीय निकाय पर भी सत्तासीन होने से दिल्ली में आम आदमी पार्टी काफी मजबूत हो गई है। इससे दिल्लीवालों को कितना फायदा होगा, इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अब आप और भाजपा के बीच तकरार बढ़ने के कयास गलत नहीं जान पड़ रहे। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि अब आप, खासतौर से पंजाब जीतने के बाद खुद को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में देखने लगी है। साथ ही, यह ध्यान रखने की भी जरूरत है कि स्थानीय चुनावों का लोकसभा के नतीजों पर खास असर नहीं होता। ऐसा हमने पिछले कई चुनावों में देखा भी है। मसलन, पिछले दो आम चुनावों क्रमश: 2014 और 2019 में दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटें भाजपा के पक्ष में गईं, लेकिन ठीक एक साल बाद हुए विधानसभा चुनावों (2015 और 2020) में सत्ता का ताज आप के सिर सजा। यानी, दिल्ली की भीतरी राजनीति में अब आप कहीं अधिक मजबूती से उभरेगी जरूर, लेकिन लोकसभा में भाजपा अपने कोर मतदाताओं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता के कारण अच्छा प्रदर्शन करती रहेगी।
आप और भाजपा की यह सियासी जंग कांग्रेस पर भारी पड़ रही है। लोकसभा और विधानसभा में तो दिल्ली के मतदाता उससे रूठ ही गए हैं, एमसीडी में भी उसका प्रतिनिधित्व दहाई के नीचे रह गया है। इसका मतलब है कि जो पार्टी 1998 से 2013 तक दिल्ली की सूबाई राजनीति की धुरी रही, एमसीडी चुनावों में भी जिसने लगातार अच्छा प्रदर्शन किया, उसके पास दिल्ली में अब सम्मानजनक संख्या में सीटें भी नहीं हैं। यानी, दिल्ली की राजनीति के दरवाजे अब कम से कम कुछ समय के लिए कांग्रेस के लिए बंद हो गए हैं।
सवाल यह है कि दिल्ली नगर निगम के नतीजे क्या देश की राजनीति को भी प्रभावित करेंगे? इन चुनावों को जिस तरह से गुजरात व हिमाचल विधानसभा चुनावों जैसा महत्व दिया गया है, उससे क्या संदेश निकलता है? मेरा मानना है कि सिर्फ एमसीडी चुनावों के परिणाम राष्ट्रीय राजनीति पर शायद ही असरंदाज हो सकेंगे। हां, अगर गुजरात में भी आप ने अच्छा प्रदर्शन किया, और जैसा कि कुछ एग्जिट पोल दावा कर रहे हैं कि वह 18 से 20 प्रतिशत मतदाताओं का भरोसा जीत सकती है, तो दिल्ली एमसीडी और गुजरात विधानसभा चुनावों के संयुक्त नतीजों के आधार पर यह पार्टी खुद को राष्ट्रीय राजनीति में मुख्य विपक्ष के रूप में स्थापित करने की कोशिश करेगी। चूंकि, दोनों जगहों से कांग्रेस को काफी नुकसान होता दिख रहा है, इसलिए आप की तरफ से यह संदेश दिया जाएगा कि आने वाले समय में विपक्ष की राजनीति की मजबूत दावेदार वह खुद है, न कि कांग्रेस।
वैसे, आप के इस राजनीतिक उभार का असर भाजपा पर भी होगा। भाजपा को यह बताया जाएगा कि दिल्ली में आप ने उसकी नाक के नीचे से सत्ता छीन ली, जबकि गुजरात में प्रधानमंत्री के गृह राज्य में उसने धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है। ऐसा करके वह खुद को भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में पेश करेगी। हालांकि, भाजपा यह सोचकर फिलहाल संतुष्ट हो सकती है कि सबसे बड़ा दल होने के कारण वह देश में शीर्षस्थ है, और यह जंग आप और कांग्रेस में विपक्ष की मुख्य धुरी बनने को लेकर है। इससे कुछ समय तक उसे बेशक कोई फर्क न पड़े, लेकिन आगे की राजनीति के लिए उसे संजीदा होना होगा। ऐसा इसलिए भी कि भविष्य की राजनीति में किस पार्टी का उभार होगा और कौन से मुद्दे मुख्य बनेंगे, इसका ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना अभी आसान नहीं।

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