महंगाई का आसान इलाज

अमेरिका मंदी की चपेट में है। लगातार दो तिमाही ऐसी गुजर चुकी हैं, जब उसकी अर्थव्यवस्था सिकुड़ती दिखाई दी है। यह खबर पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है।

यह चिंता और बढ़ जाती है, जब पता चलता है कि इस वक्त जो मंदी और भीषण संकट सामने दिख रहा है, वह काफी हद तक उन कदमों का नतीजा है, जो पिछले दो साल में इसी चक्कर में उठाए गए थे कि कहीं मंदी न आ जाए।

बड़ा डर इस बात का है कि 70 के दशक की मंदी के साथ-साथ 2008 के आर्थिक संकट की जड़, यानी कर्ज का संकट भी फिर सिर उठा रहा है। ये दोनों अलग-अलग आर्थिक भूचाल ला चुके हैं। अब अगर एक साथ आ गए, तो क्या होगा, सोचा जा सकता है।

अमेरिकी अर्थशास्त्री नूरियल रौबिनी ने यही आशंका जताई है और कहा है कि ऐसा हुआ, तो अमेरिकी शेयर बाजार आधा हो सकता है। जाहिर है, अमेरिका को जुकाम की खबर से दुनिया के अनेक दूसरे बाजारों को बुखार चढ़ सकता है। सबसे बड़ी अनिश्चितता तो कच्चे तेल के बाजार में है।


पिछले दिनों दो अलग-अलग शोध रिपोर्ट आई हैं, जो एकदम उलटी भविष्यवाणियां कर रही हैं। जेपी मॉर्गन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर यूक्रेन संकट की वजह से रूस ने तेल उत्पादन में बड़ी कटौती कर दी, जिसकी आशंका है, तो फिर एक बैरल कच्चे तेल का दाम 380 डॉलर तक उछल सकता है। यानी, महंगाई का महाविस्फोट।

मगर दूसरी तरफ सिटीग्रुप का कहना है कि अगर दुनिया में मंदी आती दिख रही है, तो फिर कच्चे तेल की मांग बुरी तरह टूटेगी और इस साल के आखिर तक ही इसके दाम 65 डॉलर और अगले साल के अंत तक 45 डॉलर पर पहुंच सकता है।

अब इनमें से क्या सही होगा, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा, लेकिन पेट्रोलियम कारोबार पर नजर रखनेवाले मध्यमार्गी अर्थशा्त्रिरयों का मानना है कि कच्चे तेल का दाम अभी 100-125 डॉलर के बीच और लंबे दौर में 150 डॉलर तक जा सकता है। हालांकि, यह भी कोई राहत की खबर नहीं है।

  इतिहास में देखें, तो 1929 की महामंदी अब तक का सबसे डरावना आर्थिक संकट था। चार दिन में अमेरिकी शेयर बाजार 25 फीसदी टूट गया था और उसके बाद लगातार तीन साल तक गिरता ही रहा। अक्तूबर 1929 से जुलाई 1932 के बीच शेयर बाजार से 90 प्रतिशत रकम उड़नछू हो चुकी थी।

इसी दौरान अमेरिका की जीडीपी 104 अरब डॉलर से गिरकर 57 अरब डॉलर रह गई। हड़बड़ी में सरकार ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर जो पाबंदियां लगाईं, उनका उलटा असर हुआ। दुनिया का कुल व्यापार एक तिहाई रह गया। तकलीफ पूरी दुनिया में इस हद तक फैली कि आखिरकार दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया।


अब इस बात पर विद्वानों में मतभेद है कि मंदी खत्म होने की वजह दूसरे विश्व युद्ध का शुरू हो जाना था या फिर अमेरिका के नए राष्ट्रपति रूजवेल्ट की नई नीति या ‘न्यू डील’। हालांकि, रूजवेल्ट की नीतियों के शुरू होने और विश्व युद्ध छिड़ने के बीच नौ साल का फर्क था, पर दुनिया को और अमेरिका को इस महामंदी से निकलने में इससे ज्यादा ही वक्त लगा।

रूजवेल्ट ने रोजगार पैदा करने, कामगारों के अधिकार सुनिश्चित करने और बेरोजगारों को सहारा देने की जो योजनाएं शुरू कीं, उनमें से कई आज तक चल रही हैं। उन्होंने कर्ज लेकर सरकारी खर्च बढ़ाया और अर्थव्यवस्था में जान लौटाने की भरपूर कोशिश की।

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