अनुभव का जोर

कहा जाता है कि दुनिया बदलनी हो, तो नौजवानों पर भरोसा करना चाहिए और नौजवान अगर बुजुर्गों के अनुभव को अपने साथ जोड़ लें, तो फिर बेहतरी का रास्ता निश्चित हो जाता है, लेकिन ये दोनों ही शर्तें पूरी होना आसान नहीं है। अव्वल तो समाज में युवाओं पर भरोसा करना और उन्हें नेतृत्व का मौका देना और जब युवाओं को नेतृत्व मिल जाए, तो बुजुर्गों को भी अपने साथ जोड़कर रखना आसान नहीं है। वैसे यह हिन्दुस्तानी समाज की ताकत और सच्चाई भी रही है, जब संयुक्त परिवारों में एक साथ तीन-तीन पीढ़ियां चला करती थीं, तब उनकी ताकत उनके व्यापार, उद्योग-धंधों और परिवारों को भी आगे ले जाने में मददगार होती थी। 
इस सप्ताह दो महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएं हुई हैं, उधर, ब्रिटेन में 42 साल के ऋषि सुनक प्रधानमंत्री चुने गए, तो इधर, भारत में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के 137 साल के इतिहास में मल्लिकार्जुन खड़गे छठे निर्वाचित अध्यक्ष चुने गए। 80 साल के खड़गे ने चुने जाने के बाद सबसे पहले कांग्रेस में जवां खून को शामिल करने का ऐलान किया और कहा कि पचास फीसदी हिस्सेदारी युवाओं की रहेगी। आलोचक कह सकते हैं कि 80 साल के बुजुर्ग खड़गे कांग्रेस में क्या नया जोश भर पाएंगे, लेकिन यह भी सच है कि पचास फीसदी युवाओं को अगर जगह मिली, तो यह बदलाव कांग्रेस पार्टी और राजनीति के लिए बेहतर साबित हो सकता है। सवाल तो यह भी किया जा सकता है कि जब राहुल गांधी साल 2004 में सांसद बनकर राजनीति में सक्रिय हुए थे, लेकिन उन्होंने पार्टी को चुनावी राजनीति के तौर पर तो निराश ही किया और उनके कार्यकाल में पार्टी लोकसभा और विधानसभाओं के करीब पचास चुनावों में से चालीस हार गई। उनके पिता राजीव गांधी के जमाने में 415 सांसदों वाली पार्टी का आंकड़ा 54 तक पहुंच गया। राजीव गांधी भी करीब इसी उम्र में प्रधानमंत्री बन गए थे, मगर राहुल गांधी के समर्थकों की इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि उन्होंने हिन्दुस्तान में एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत की। कांग्रेस की युवा इकाइयों – युवा कांग्रेस और एनएसयूआई में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए संगठन चुनाव राहुल गांधी ने ही करवाए और आज 25 साल बाद कांग्रेस में गैर-गांधी परिवार का अध्यक्ष बना है, तो उसका एक बड़ा कारण राहुल गांधी की जिद ही है, जिन्होंने तय किया कि न तो वह खुद दोबारा अध्यक्ष बनेंगे और न ही गांधी परिवार के किसी सदस्य को अध्यक्ष बनने देंगे।

दुनिया के युवा देशों में से एक हिन्दुस्तान की कुल आबादी में पचास फीसदी 25 साल से कम उम्र वाले हैं और 35 साल से कम उम्र वाले करीब 65 फीसदी हैं। साल 2020 में एक भारतीय की औसत उम्र 29 साल थी, जबकि चीन में यह 37 साल और जापान में 48 साल। साल 2019 के लोकसभा चुनावों में करीब 8 करोड़ बीस लाख वोटर ऐसे थे, जिन्होंने पहली बार वोट के अधिकार का इस्तेमाल किया था और शायद इसी का नतीजा रहा कि मौजूदा लोकसभा में 64 सांसदों की उम्र 40 साल से कम है और 41 से 55 साल के उम्र के 221 सांसद चुने गए यानी हिन्दुस्तान के वोटर ने अपने नौजवान नेताओं पर भी उतना ही भरोसा जताया, जितना अनुभवी नेताओं पर। इसका असर केंद्र सरकार और मौजूदा भारतीय राजनीति पर भी साफ-साफ दिखाई देता है, जहां मोदी सरकार में युवा और अनुभवी, दोनों का बेहतर योग है। 
अनुभवी प्रधानमंत्री मोदी 70 साल के हैं, तो उनकी सरकार में 14 मंत्रियों की उम्र 50 साल से कम है। कुल 36 मंत्री 60 साल से कम उम्र के हैं। सरकार में शामिल कूच बिहार के नीतीश प्रामाणिक तो सिर्फ 35 साल के हैं। मौटे तौर पर मोदी और भाजपा ने 75 साल की उम्र सीमा सक्रिय राजनीति के लिए तय कर दी है, जिसकी वजह से कई मंत्रियों को सरकार से बाहर होना पड़ा है। 

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