लोकशाही

बहस की शाश्वत परंपरा और अनुभवों से लगातार खुद को बेहतर करते रहना लोकशाही की सबसे बड़ी ताकत है। यही वजह है कि दंड प्रक्रिया पहचान विधेयक 2022 के संसद से पारित हो जाने के बाद भी इस पर बहस का सिलसिला जारी है।

यह कानून 1920 के इसी तरह के कानून की जगह लेगा। इसके माध्यम से केंद्र सरकार अभियुक्तों, अपराधियों व अन्य व्यक्तियों का एक केंद्रीकृत डाटाबेस बनाना चाहती है, जिसमें गैर-कानूनी गतिविधियों से जुड़े लोगों की निजी और बायोलॉजिकल जानकारी होगी।

इसे संरक्षित करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो को दी गई है। अभिलेख के डिजिटल डाटा को 75 वर्षों तक संरक्षित रखा जा सकेगा, पर यदि कोई अभियुक्त अदालत द्वारा दोषमुक्त कर दिया जाए, तो उसका डाटा नष्ट कर दिया जाएगा।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो इस सूचना को अपराध नियंत्रण करने वाली अन्य एजेंसियों के साथ साझा कर सकेगा। कानून द्वारा अधिकृत प्राधिकारी हाथ, अंगुलियों और पैरों के निशान, फोटो, रेटीना स्कैन, हस्ताक्षर, फोटो व आवाज के नमूने तथा बायोलॉजिकल सैंपल ले सकेगा।

बायोलॉजिकल सैंपल में खून व बाल के नमूने, लार व उनका डीएनए विश्लेषण और उसका सैंपल शामिल है। अधिकृत व्यक्ति को ऐसे नमूने इकट्ठा करने का अधिकार होगा। नमूना देने से इनकार करना दंडनीय जुर्म माना जाएगा।


अमेरिका तथा ग्रेट ब्रिटेन में इस तरह का कानून पहले से ही है और उनके केंद्रीय कृत डाटाबेस से अपराध नियंत्रण में बहुत मदद मिली है। अपने यहां महाराष्ट्र में भी यह प्रयोग हुआ है और इससे अपराध पर अंकुश लगाने में उन्हें मदद मिली है।

इन्हीं अनुभवों के आधार पर केंद्र सरकार को उम्मीद है कि अपराध नियंत्रण की दिशा में यह कानून मील का पत्थर साबित होगा।

बदलते परिवेश में अपराधियों का व्यवहार तथा उनके तौर-तरीके जटिल होते जा रहे हैं, इसलिए इस तरह का डाटाबेस आवश्यक हो गया है, ताकि अपराध से जुड़े व्यक्तियों की पहचान करके उन्हें दंडित किया जा सके। 


सन 1920 के कानून में मजिस्ट्रेट या सब-इंस्पेक्टर से बड़े रैंक का पुलिस ऑफिसर ही निजी डाटा इकट्ठा करने का निर्देश दे सकता था।

मौजूदा विधेयक में इसका दायरा बढ़ा दिया गया है। अब पुलिस थाने का इंचार्ज, हेड कांस्टेबल और उससे बड़े रैंक के पुलिस अधिकारी तथा जेल के हेडवार्डन को भी ऐसा डाटा इकट्ठा करने के निर्देश देने का अधिकार होगा।

कई लोगों को इस पर आपत्ति है, क्योंकि उनका मानना है कि निचली रैंक के अधिकारियों पर चौतरफा दबाव रहता है, उनके लिए निष्पक्षतापूर्ण कार्य करना आसान नहीं होता व अधिकार के दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है।

लोगों का यह भी मानना है कि इस तरह व्यक्तिगत डाटा इकट्ठा करने का निर्णय बहुत संवेदनशील काम है। इसमें लोगों की निजता का अधिकार और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगती है, इसलिए डाटा या सूचना एकत्रित करने का निर्देश देने का अधिकार मजिस्ट्रेट या जिम्मेदार पुलिस व जेल अधिकारियों को ही होना चाहिए।


नए विधेयक में दोष सिद्ध अपराधियों, अभियुक्तों और निवारक नजरबंदी में निरुद्ध व्यक्तियों को अपनी पहचान से संबंधित डाटा देने के लिए आदेश दिया जा सकता है।

इसके अलावा, उन लोगों की पहचान से संबंधित डाटा भी इकट्ठा किया जा सकता है, जो किसी अपराध के संबंध में गिरफ्तार किए गए हों।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति अभियुक्त नहीं है और तफ्तीश के लिए उसे गिरफ्तार किया गया है, उसका भी सैंपल लिया जा सकता है।

मानवाधिकार संगठनों को आशंका है कि ‘मैं’ शब्दावली इतनी व्यापक है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है, क्योंकि सिर्फ शक के आधार पर पकड़े गए लोग भी इसके दायरे में आ जाएंगे और यदि उन्हें बेवजह प्रताड़ित किया जाता है, तो सरकार के खिलाफ बेवजह आक्रोश बढ़ेगा।


अमेरिका, कनाडा व ब्रिटेन में भी इस तरह के कानूनों को लेकर शुरू में वही आशंकाएं थीं, जो आज हमारे यहां जताई जा रही हैं। निजता के अधिकार की भी अपनी एक सीमा है।

यह एक व्यक्तिगत अधिकार है, जबकि अपराध पर नियंत्रण करना सामाजिक जरूरत है। समाज का हित और उसके लिए अपराध पर अंकुश लगाना निजी अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमारे देश में अपराधों में दोष सिद्धि की दर अन्य देशों से बहुत कम है।

जैसे, अमेरिका में प्रत्येक 100 में से 99.8 अभियुक्त को सजा मिल जाती है, जबकि भारत में बमुश्किल 67 को सजा मिल पाती है। यहां साक्ष्य के अभाव में अधिकतर अपराधी छूट जाते हैं। अपराधियों ने बदलते दौर में अपने तौर-तरीकों में बदलाव किया है।

इसलिए उन पर प्रभावी नियंत्रण के लिए वैज्ञानिक तौर-तरीके अपनाना बहुत जरूरी हो गया है। अपराधी संबंधी डाटाबेस बहुत मददगार साबित होगा। 


यहां यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में पुलिस की कार्य-संस्कृति हमसे इतनी अलग है कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

कानून लागू करने वाली उनकी संस्थाओं ने पिछले 200 वर्षों में ऐसी कार्य-संस्कृति विकसित की है, जिसमें जान-बूझकर कानून के दुरुपयोग की आशंका धीरे-धीरे नगण्य होती गई है। अपने यहां पेशेवर निष्पक्षता तक पहुंचने में कुछ दशकों का समय लग सकता है।

अच्छे कानून या अच्छी व्यवस्थाएं तभी कारगर होंगी, जब हम पुलिस सुधार करेंगे और पुलिस को कानून एवं समाज के प्रति पूरी तरह से जिम्मेदार बनाएंगे।

प्रस्तावित कानून की धारा सात में अधिकारियों को सद्भावपूर्वक किए गए कार्य के लिए संरक्षण दिया गया है, किंतु उन्हें दुर्भावनापूर्ण कार्य के लिए दंडित किए जाने के बारे में यह विधेयक मौन है।

ऐसे उपाय होने चाहिए कि दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई से आम लोगों को बचाया जा सके। स्वस्थ लोकशाही के लिए यह जरूरी है, ताकि शासन पर जनता का भरोसा कायम रहे। 


विधेयक की धारा सात में केंद्र व राज्य सरकारों को इसे लागू करने के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया गया है। धारा नौ में केंद्र को यह अधिकार भी दिया गया है कि वह इसे लागू करने में आ रही दिक्कतों को दूर कर सकती है।

गृह मंत्री ने भी लोकसभा में इस विधेयक को संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास विचार के लिए भेजने का आश्वासन दिया है। उम्मीद है, यह समिति इन त्रुटियों को दूर करके इस महत्वपूर्ण कानून के माध्यम से अपराध नियंत्रण की पहल को आगे बढ़ाएगी।

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