बहुध्रुवीय दुनिया

एशिया का भविष्य क्या यूरोप के अतीत जैसा होगा? यह दशकों से पूछा जाने वाला वह सवाल था, जिसके आधार पर एशियाई राजनेताओं को एक सदी पहले की यूरोपीय तबाही से सबक सीखने के लिए कहा जाता था।

हम आज फिर उस विचार को इस प्रश्न से संजीवनी दे सकते हैं कि क्या एशिया का भविष्य यूरोप के वर्तमान जैसा होगा? हालिया घटनाओं ने बदलती विश्व-व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों को विदेश नीति से जुड़ी बहसों में सबसे आगे ला खड़ा किया है।


यूरोपीय संकट के मूल में है वर्चस्व हासिल करने की सोच। हमें यहां पूरा इतिहास बताने की जरूरत नहीं है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि शीत युद्ध के अंत ने जंग के बाद की बंदोबस्ती व प्रमुख संस्थानों में दूसरे पक्ष की सहभागिता को बहुत सुगम नहीं बनाया।

वास्तव में, शीतयुद्ध के बाद विश्व व्यवस्था का जो ढांचा तैयार किया गया था, वह एकतरफा था और उसमें कथित ‘पराजित ताकत’ (रूस) के मूल हितों को किनारे कर दिया गया था।

एक को फायदा और दूसरे को नुकसान वाली यह स्थिति तीन दशकों से विकसित हो रही थी। फरवरी, 2022 में विस्फोटक स्थिति में पहुंचने से पहले इस बाबत चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया गया था।


आज हिंद-प्रशांत, यानी इंडो-पैसिफिक के लिए क्या सबक हैं? सबसे पहला सबक तो सुरक्षा ढांचे की बनावट है, और इसमें यह अंतर्निहित विचार कि दुनिया पर राष्ट्रों के किसी एक समूह का एकाधिकार नहीं हो सकता।

एक स्थिर व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी उभरती शक्तियों और स्थापित ताकतों की सम्मिलित कोशिशों में निहित है। यह प्रयास परस्पर हितों के संतुलन पर आधारित होना चाहिए।

इसमें यह भी महत्वपूर्ण है कि तमाम अलग-अलग हितों को कितनी कुशलता से एक साथ पिरोया जाए। यही वजह है कि हमारे पास विदेश में दूतावास होते हैं और इतिहासकारों व रणनीतिकारों की फौज होती है, जिनसे यह समझने में मदद मिलती है कि कब रणनीतिक सख्ती बुद्धिमानी कही जाएगी या कब किसी विचार या सुरक्षा-प्रतिबद्धता की रक्षा के लिए दृढ़ रहना होगा, या कब परस्पर मिलकर आगे बढ़ना सबसे बेहतर विकल्प होगा। 


यूरोप के विपरीत, एशिया का सुरक्षा ढांचा विविधताओं से भरा हुआ है, यहां तक कि इसमें विरोधाभासी सोच, अलग-अलग अवधारणाएं और परस्पर विरोधी समूह भी शामिल हैं।

इसलिए हमारे पास एक नेतृत्व व कई सदस्यों को मिलाकर पारंपरिक सैन्य गठबंधन हैं, जिन्होंने घनिष्ठ सुरक्षा समूहों या समुदायों में सुरक्षा गारंटी व सदस्यता के एवज में रणनीतिक स्वायत्तता का नुकसान भी मंजूर किया है।

हमारे पास ऐसी लचीली सुरक्षा समझ या भागीदारी भी है, जिसमें हम राष्ट्रों को उनकी पहले की प्रतिबद्धताओं से अलग करने के लिए मजबूर नहीं कर पाते हैं।

हम उनके सैन्य प्रतिष्ठानों और सुरक्षा बलों को सूचनाओं के आदान-प्रदान वाले किसी खास समूह के अनुकूल नहीं गूंथ पाते हैं।

हमारे पास दरअसल तटस्थ राष्ट्र या समूह हैं, जिन्होंने प्रमुख प्रतिस्पद्र्धी ताकतों के साथ अच्छे संबंध विकसित करने और अपनी विदेश नीतियों को आगे बढ़ाने को तवज्जो दी है।

और अंत में, हमारे पास भारत जैसा बड़ा मुल्क है, जो स्वतंत्र विदेश व सुरक्षा नीतियों पर चलते हुए ही आगे बढ़ता रहा है। भारत अपनी अलग नीतियों के कारण कई गुटों व संस्थानों में द्विपक्षीय व बहुपक्षीय भागीदारियों को सुनिश्चित कर पाता है। 


दशकों से यही माना जाता था कि यूरोपीय शैली की सुरक्षा व्यवस्था के अभाव में एशिया पिछड़ जाएगा। मगर अब ऐसा लगने लगा है कि एशिया की विविधता या जटिलता वास्तव में ऐसी व्यवस्था का निर्माण करती है, जिसमें बड़ी ताकतों के बीच भी एशिया के देश वैध, स्थिर व सक्रिय संतुलन बना पाते हैं।

एक बार जब हम यह समझ लेते हैं कि अमेरिका-चीन, चीन-यूरोपीय संघ जैसी कथित प्रतिद्वंद्वी ताकतों की आपसी आर्थिक निर्भरता खत्म नहीं होगी, तब हमें आगे की राह मालूम पड़ती है।

तय है, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दशकों से बने नैसर्गिक रिश्ते बने रहेंगे और अर्थव्यवस्था व लोगों की नियति को प्रभावित करते रहेंगे।

परस्पर मिलकर चलने व सबसे संबंध रखने की यह विश्व व्यवस्था जब हमारी समझ में आ जाती है, तब किसी संभावित व्यवस्था-निर्माण के समर्थन में तर्क और दमदार हो जाते हैं।


अब बात भारत के नजरिये की। कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि यूरोप की मौजूदा घटनाओं ने भारत की विदेश नीति को बहुत प्रभावित किया है।

हालांकि, वे लोग ही इस निष्कर्ष से सहमत हैं, जो एशिया में भारत की भूमिका को पश्चिम के एक संतरी देश के रूप देखते हैं। इसके विपरीत, मौजूदा संकट ने भारत की विदेश नीति के बुनियादी सिद्धांतों को बिल्कुल सही साबित किया है।

इनमें से एक सिद्धांत है, बड़ी ताकतों के साथ साझेदारी करने की क्षमता और खुद पर दृढ़ विश्वास। भारत अगर प्रतिस्पद्र्धा में ज्यादा उलझे रहता, तो उसकी क्षमता और विश्वास, दोनों खत्म हो सकते थे।

आज एक बहुध्रुवीय दुनिया इसी तरह के नजरिये या दृष्टिकोण को स्वाभाविक और विवेकपूर्ण मानती है।
आज भारत के बुनियादी हित एशिया में चल रही वर्चस्व की जंग में एक स्थायी संतुलन बनाने में हैं।

चीन की सीमा से लगे तमाम देशों के साथ रिश्ते मजबूत करने और उनसे बेहतर संवाद बनाने में हमारा हित है। महाद्वीपीय यूरेशिया, दक्षिण पूर्व एशिया के तटीय देशों और आर्कटिक सहित रूस के पूर्वी क्षेत्र के देशों से भी जुड़ाव विकसित करने में हमारी भलाई है।

इसके साथ ही, देश के भीतर आधुनिकीकरण व औद्योगिकीकरण को बढ़ाने; मिश्रित आर्थिक व डिजिटल क्षेत्रों में निवेश से हम और मजबूत होंगे। हमारे किसी भी महत्वपूर्ण क्षेत्र पर किसी एक राष्ट्रीय प्राधिकरण या निजी संस्थान का एकाधिकार नहीं होना चाहिए।

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker