राजद्रोह

यह पहला मौका नहीं है कि पिछले वर्षों में भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) की संवैधानिकता न्यायिक पड़ताल के दायरे में आई हो। दरअसल, हाल के वर्षों में इस कानून के तहत दर्ज मामलों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। बताया जा रहा है कि वर्ष 2016-19 के बीच इस कानून के तहत दर्ज मामलों में 160 फीसदी की वृद्धि बतायी गई है जबकि दोषसिद्धि दर घटकर महज तीन फीसदी रह गई है।

बीते सप्ताह मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा था कि महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक को खामोश कराने के लिये अंग्रेजों द्वारा प्रयोग किया गया औपनिवेशिक युग का कानून आजादी के 75 साल बाद भी अस्तित्व में क्यों है? लोकतांत्रिक परंपराओं को बाधित करते इस दंडात्मक प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं किया जाता जबकि लगातार इसके दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है।

दरअसल, आईपीसी की इस धारा को चुनौती देते हुए एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने अदालत में याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि इस कानून का उपयोग बार-बार अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने के लिये किया जाता है।

हकीकत यह भी है कि राजद्रोह के अधिकांश मामले अदालतों में टिक नहीं पाते क्योंकि पुलिस और अन्य एजेंसियां कमजोर सबूतों के बावजूद राजनीतिक विरोध के चलते लोगों को सलाखों के पीछे डाल देती हैं। असंतुष्टों को सबक सिखाने के लिये इसका उपयोग किया जाता है, अब चाहे वह व्यक्ति पत्रकार हो, सामाजिक कार्यकर्ता हो, बुद्धिजीवी हो या आंदोलनकारी।

निस्संदेह अदालती कार्रवाई के बाद आरोपी व्यक्ति को बरी कर दिया जाता है लेकिन इस बीच विचाराधीन कैदी के रूप में जो शारीरिक व मानसिक यातना वह झेल चुका होता है, उसकी मुक्ति नहीं हो पाती। जी

वन भर के लिये एक यंत्रणा दिमाग में रहती है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वी. चंद्रचूड़ की भी एक टिप्पणी आई थी, जिसमें कहा गया था कि आतंकवाद विरोधी कानून समेत कई अपराध नियंत्रक कानूनों का दुरुपयोग असहमति को दबाने के लिये नहीं किया जाना चाहिए। व्यक्ति को स्वतंत्रता से वंचित किये जाने की कोशिश के खिलाफ अदालतों को पहली पंक्ति के रूप में कार्य करना चाहिए। न्यायपालिका नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिये कदम उठाती रही है।

अब सरकार का दायित्व है कि इस स्थिति में सुधार के लिये अपना कर्तव्य निभाये। केंद्र ने विगत में ब्रिटिश हुकूमत के दौर के साठ पुराने-निरर्थक कानूनों को निरस्त किया था, अब राजद्रोह कानून को भी कानून की किताब से हटाने का वक्त आ गया है। यह जितना ज्यादा समय अस्तित्व में रहेगा, लोकतंत्र को उतना ही ज्यादा नुकसान होगा।

निस्संदेह, लोकतंत्र में लोक का सम्मान होना चाहिए। लेकिन जब लोक पर तंत्र हावी होने लगता है तो लोकतंत्र की सार्थकता पर सवाल उठते हैं। किसी भी सभ्य समाज व देश में लोगों को अनुशासित रखने के लिये सख्त कानूनों का इस्तेमाल तार्किकता की दृष्टि से औचित्यहीन ही है।

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