अपनों-अपनों को दें

जनता के हितों के लिए सक्रिय राजनीति में आने की दुहाई देने वाले नेता सत्ता पाने के बाद सरकारी संसाधनों की बंदरबांट व नियुक्तियों की धांधली में कैसे लिप्त होते हैं, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। कुछ मामले उजागर हो जाते हैं, कुछ का जिक्र नहीं हो पाता।

सत्ता के समीकरणों को साधने के लिये महत्वपूर्ण नौकरियों की बंदरबांट कैसे होती है, इसका निर्लज्ज उदाहरण पिछले दिनों पंजाब में देखने को मिला। आसन्न चुनाव से कुछ माह पूर्व असंतुष्टों के जोरदार हमलों से हलकान मुख्यमंत्री ने जिस तरह कुछ असंतुष्टों को साधने के लिये सरकारी नौकरियां तश्तरी में परोसी, उसे राजनीतिक मूल्यों के पराभव के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

निस्संदेह, इस घटनाक्रम ने पंजाब सरकार की साख को कमजोर ही किया। विधानसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व दो विधायकों के बेटों को नौकरी देने के पंजाब कैबिनेट के फैसले ने राज्य में राजनीतिक उथल-पुथल मचा दी, क्योंकि बागी कांग्रेसी मामले को उजागर करने में हमलावर हो उठे, जिसने मामले को न्यायिक जांच के दायरे में पहुंचा दिया।

इस बाबत पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में दावा किया गया कि यह अनुकंपा पर आधारित नियुक्तियों की प्रक्रिया का उल्लंघन है।

वहीं पंजाब सरकार की दलील थी कि विधायकों के परिवार के बलिदान के प्रति आभार जताने के लिए मुआवजे के तौर पर ये नौकरियां दी गईं। दरअसल, दो विधायकों के पिता, जिन्होंने मंत्री के रूप में कार्य किया, वर्ष 1987 में चरमपंथियों ने उन्हें गोली मार दी थी।

हालांकि, कांग्रेस ने लगातार इन परिवारों को पार्टी का टिकट देकर कृतार्थ किया है। लेकिन तीसरी पीढ़ी को तीन दशक के बाद मुआवजे के रूप में रोजगार देना कई सवालों को जन्म दे गया।

यदि कांग्रेस ये काम शुरुआती कार्यकाल में करती तो तब इतना विवाद न होता। सवाल यह भी उठता है कि क्या राज्य सरकार ने अनुकंपा के आधार पर किसी आम आदमी को तीन दशक के बाद नौकरी दी है?

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट भी एक फैसले में कह चुका है कि सार्वजनिक सेवा में अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति एक अधिकार नहीं है बल्कि यह एक मृत कर्मचारी के परिवार को गरीबी से बचाने का सरकार का प्रयास मात्र है।

इन विधायकों की संपन्नता और राजनीतिक रसूख को देखते हुए नहीं लगता कि उनके परिवार को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी देने की जरूरत है। पहले भी वर्ष 2017 में राज्य के एक पूर्व मुख्यमंत्री के पोते को डीएसपी के रूप में नियुक्त करने पर विवाद उठा था।

जो पार्टी ‘घर-घर रोजगार’ देने के नारे के साथ सत्ता में आई हो, वह पहले अपने नेताओं के घर-घर नौकरी बांटने लगे तो उसकी साख पर बट्टा लगना स्वाभाविक ही है। पहले ही अंदरूनी कलह से कराहती कांग्रेस को इस तरह के विवादास्पद फैसलों से साख के संकट से गुजरना होगा। निस्संदेह उसकी विश्वसनीयता को आंच आएगी।

यहां सवाल पंजाब की कांग्रेस सरकार का ही नहीं है, अन्य राज्यों में गाहे-बगाहे नौकरी बांटने के ऐसे विवाद सामने आते रहे हैं। लेकिन अब सोशल मीडिया के जमाने में लोग हमलावर होने से नहीं चूकते। पिछले माह उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में बेसिक शिक्षा मंत्री सतीश द्विवेदी के भाई की नियुक्ति का विवाद सामने आया था।

कपिलवस्तु के सिद्धार्थ विश्वविद्यालय में मंत्री के भाई के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के आरक्षण के तहत नौकरी हासिल करने पर सोशल मीडिया पर खासा विरोध हुआ था।

दरअसल, मंत्री के भाई की नियुक्ति आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के आरक्षण के तहत असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर की गई। तब सवाल उठा था कि वह कैसे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के हो गए जबकि उनकी पत्नी भी नौकरी करती है।

इससे पहले मंत्री के भाई को पूर्व नौकरी में सत्तर हजार से अधिक का मासिक वेतन मिलता था। मामले के तूल पकड़ने के बाद मंत्री के भाई को इस्तीफा देना पड़ा। मामला नेताओं के अपनों को नौकरियों की रेवड़ियां बांटने की कथा को ही उजागर करता है।

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