खतरनाक देश

इन दिनों पाकिस्तान में हंगामा बरपा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने डेमोक्रेटिक पार्टी की चुनावी तैयारियों से जुड़े समूह के सामने बोलते हुए पाकिस्तान को दुनिया के सबसे खतरनाक मुल्कों में से एक करार दे दिया। यह एक ऐसे समय हुआ, जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी और पीडीएम गठबंधन की शहबाज शरीफ सरकार अपनी विदेश नीति की सफलता की डींगे हांकते थक नहीं रहे थे। वर्षों बाद यह भी हुआ कि किसी पाकिस्तानी जनरल को अमेरिका के सुरक्षा तंत्र में इतना महत्व मिला। हालिया यात्रा के दौरान जनरल बाजवा को अमेरिकी रक्षा सचिव ने तो समय दिया ही, रक्षा मुख्यालय पेंटागन में भी उनको अप्रत्याशित प्रोटोकॉल दिया गया। 
चंद महीनों में अमेरिकी रुख में इतना बड़ा बदलाव कैसे हो गया? अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जो गंभीर अध्येता अमेरिकी नीतियों पर नजर रखते हैं, वे जानते हैं कि ये किसी फौरी उत्तेजना की निर्मिति नहीं हैं, उन्हें अमेरिकी हितों को ध्यान में रखते हुए बहुत से विचार समूहों ( थिंक टैंक) से प्राप्त इनपुट के आधार पर विकसित किया जाता है, इसलिए न तो पाकिस्तानी उल्लास के पक्ष में कोई तर्क बनता है और न ही जो बाइडन के बयान से कोई सरलीकृत निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति ने यूं ही पाकिस्तान को सबसे खतरनाक मुल्कों की श्रेणी में नहीं रखा है। सात घोषित और दो अघोषित परमाणु हथियार संपन्न देशों में पाकिस्तान अकेला है, जहां से अलग-अलग मौकों पर परमाणु तकनीक अनधिकृत स्रोतों को बेची गई है। तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को अमेरिकी अधिकारियों द्वारा दस्तावेजी सबूत दिखाने के बाद पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम के जनक अब्दुल कादिर को आजीवन अपने घर में नजरबंद कर दिया गया था। आज यह खुले रहस्य की तरह है कि उत्तरी कोरिया और ईरान के परमाणु कार्यक्रम विकास के जिन चरणों में हैं, उन्हें वहां तक पहुंचाने में पाकिस्तान के सैन्य और असैन्य अधिकारियों को मिली रिश्वतों का भी बड़ा हाथ है। खुद प्रधानमंत्री रही बेनजीर भुट्टो ने भी एक इंटरव्यू में इसे माना था कि उनके सरकारी जहाज का भी इस काम में इस्तेमाल हुआ था। पूर्व गृह मंत्री शेख रशीद जैसे पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि उनके पास टैक्टिकल बम हैं। टैक्टिकल बम वे छोटे बम होते हैं, जिन्हें बिना महंगे तामझाम के दो-तीन पैदल सैनिक चला सकते हैं। सही अर्थों में तो एक ही सैनिक काफी है, जो अपने कंधे पर रखे किसी लॉन्चर से यह बम फेंक सकता है। इसे उपयोग में लाने के लिए कमांड और कंट्रोल का वर्तमान तंत्र काफी हद तक अपर्याप्त सिद्ध होगा। छोटा बम एक सीमित इलाके में कुछ लाख लोगों को तो मारेगा ही, एक बड़े परमाणु युद्ध की संभावना भी पैदा करेगा।
अमेरिका के लिए दूसरा और ज्यादा बड़ा दु:स्वप्न पाकिस्तानी परमाणु जखीरे का किसी आतंकी संगठन के हाथ पड़ जाने की आशंका है। एक कमजोर नींव पर खड़े पाकिस्तानी राज्य में इसका खतरा हमेशा बरकरार रहता है। कई बार ऐसा हुआ कि देश के किसी विशाल भूभाग पर इस्लामी अतिवादियों का कब्जा हो गया और एक स्थिति तो ऐसी भी आई, जब वे इस्लामाबाद से सिर्फ साठ मील दूर रह गए थे। दुर्भाग्य से मुख्यधारा के लगभग हर राजनीतिक दल ने मौका पड़ने पर सशस्त्र जेहाद में विश्वास रखने वाले संगठनों से हाथ मिलाया है। इस समय लोकप्रियता के शिखर पर बैठे इमरान तो एक जमाने में कहे ही जाते थे तालिबान खान। फौज एक प्रोजेक्ट के तौर पर उन्हें सत्ता में लाई थी और उसके हाथ खींच लेते ही वे तख्त से उतार दिए गए। पर विपक्ष में बैठे इमरान ज्यादा खतरनाक हो गए हैं। अमेरिका मुखालिफ आख्यान तो पाकिस्तान में हमेशा बिकता आया है, उन दिनों भी जब वह पूरी तरह से अमेरिकी मदद पर निर्भर था, सार्वजनिक विमर्श का टोन ऐसा ही होता था, पर इस बार तो इमरान ने इस नैरेटिव को फौज विरोधी भी बना दिया है। इन दिनों पाकिस्तानी सोशल मीडिया सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा और उनके समर्थक खुफिया इदारों के अफसरों के खिलाफ गुस्से से भरा हुआ है। सत्ताच्युत होने के बाद होने वाले सारे उपचुनावों को इकतरफा मुकाबलों में जीतकर इमरान ने साबित कर दिया है कि पाकिस्तान में अमेरिका विरोधी के साथ ही फौज विरोधी बयान भी बिक सकता है और यह भी अमेरिका के लिए चिंता का एक कारण है। इसमें कोई शक नहीं है कि पाक फौज भारत और अफगानिस्तान के अभियानों मे अतिवादी मुस्लिम संगठनों का इस्तेमाल करने के लिए उन्हें पालती पोसती रही है, पर यह भी सच है कि जब भी किसी जेहादी संगठन ने राज्य सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास किया उसके खिलाफ प्रतिरोध की मजबूत दीवाल सेना ही बनी है और उसने इसकी कीमत भी अपने हजारों अफसरों और जवानों की कुर्बानियों के रूप में चुकाई है। पाक और अमेरिकी सैन्य अधिकारियों के बीच सरकारी रिश्तों में आने वाले उतार-चढ़ाव के बावजूद स्वतंत्र संबंध बने रहे हैं।

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