मर्म समझिए

द्रौपदी मुर्मू और राष्ट्रपति भवन में बस एक औपचारिक शपथ-ग्रहण की दूरी रह बची है। वह भारत की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति होंगी। उन्हें यहां तक पहुंचाकर भाजपा ने एक तरह से राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी का सपना पूरा किया है।

गांधी चाहते थे कि कोई दलित महिला आजाद भारत की पहली राष्ट्रपति बने। राष्ट्रपति का पद भले ही गैर-राजनीतिक माना जाता हो, पर इसका चुनाव समूचे सियासी गुणा-भाग से होता है।

जब भारतीय जनता पार्टी ने द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा की, उस दिन 23 पार्टियों वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पास 48.64 प्रतिशत वोट थे। इनमें अकेले भाजपा की हिस्सेदारी 40 फीसदी की थी। इससे जूझने के लिए प्रतिपक्ष के पास महज 35.47 प्रतिशत वोट थे।

तय था कि बिना सियासी तोड़-फोड़ के कोई भी राष्ट्रपति नहीं बन सकता। मोदी, शाह और नड्डा की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी से बेहतर इस खेल को भला कौन जानता है?

कर्नाटक से महाराष्ट्र तक इसके प्रमाण बिखरे हुए हैं। नवीन पटनायक की अगुवाई वाले बीजू जनता दल और जगन मोहन रेड्डी की वाईआरएस कांग्रेस पार्टी जैसे पहले से बेताब बैठी थी।

जगन रेड्डी तो नए हैं, पर पिछले चुनाव में भी बीजू जनता दल ने एनडीए के ही समीकरण साधे थे। यूपीए के साथी दो दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा और शिवसेना को अलग-अलग मजबूरियों से द्रौपदी मुर्मू की महागाथा में हिस्सेदारी निभानी पड़ी। 


चुनाव तक साफ हो चुका था कि कुलजमा 44 पार्टियां मुर्मू, तो 34 यशवंत सिन्हा के समर्थन में हैं, पर असली खेल बाकी था। मतदान के दिन कांगे्रस सहित तमाम क्षेत्रीय दलों के लोगों ने खुलकर ‘क्रॉस वोटिंग’ की। यशवंत सिन्हा ने अंतरात्मा की आवाज पर वोटिंग की अपील की थी।

ऐसा करते वक्त वह भूल गए थे कि राजनीति में ‘अंतरात्मा’ के बजाय अपना स्वार्थ अधिक महत्व रखता है। राष्ट्रपति का चुनाव इसका सबसे ताजा और ज्वलंत उदाहरण है। इस मतदान में गठबंधनों की एकता और सियासी प्रतिबद्धताएं सिर्फ कोरा नारा साबित हुईं। 


बात छिड़ गई है, इसलिए बताने में हर्ज नहीं। राष्ट्रपति चुनाव में ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर मतदान का शोशा इंदिरा गांधी की ईजाद था। 1969 में उन्होंने खुद को असली कांग्रेस साबित करने के लिए यह नारा उछाला था। उनका सूरज चढ़ रहा था, लिहाजा यह तरकीब काम कर गई।

उनके उम्मीदवार वराहगिरी वेंकट गिरी सियासी खलीफा नीलम संजीव रेड्डी को पछाड़ने में कामयाब रहे। गौरतलब है कि सिन्हा ने जब इस नारे को बुलंद किया, तो उनका और उनके समर्थकों का पारा ऊपर नहीं, नीचे जाता दिख रहा था। 


यही वजह है कि द्रौपदी मुर्मू को 64.03 प्रतिशत और यशवंत सिन्हा को सिर्फ 35.97 फीसदी मत मिले। 
आप यदि पिछले तीन राष्ट्रपति चुनावों का ब्योरा उठाकर देखें, तो पाएंगे कि 2007 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल रही हों, या 2012 में यूपीए के प्रणब मुखर्जी अथवा 2017 में एनडीए के रामनाथ कोविंद, हर बार उसी को देश का प्रथम नागरिक बनने का गौरव हासिल हुआ, जिसे दिल्ली दरबार ने चुना था।

तीनों बार विजेता को 65 से 70, तो पराजित को 30 से 35 फीसदी मत मिले। मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव भी इसका अपवाद नहीं साबित हुआ। आप चाहें, तो यहां अंत:पुर की छल, बल और कपट से भरी कहानियों को याद कर सकते हैं। हालांकि, इससे राजनेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता।


इस चुनाव ने विपक्षी एकता के पैरोकारों की एक बार फिर मिट्टी पलीद कर दी है। कांग्रेस ने जान-बूझकर खुद को नेपथ्य में रखा था। कमान शरद पवार और ममता बनर्जी के हाथों में सौंप दी गई थी। यशवंत सिन्हा तृणमूल की पसंद थे।

आपको याद होगा, कुछ महीने पहले ममता बनर्जी दिल्ली आकर विपक्ष के तमाम दिग्गजों से मिल रही थीं। उस समय उनके अलमबरदारों ने डुगडुगी बजाई थी कि वह गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी विपक्ष की सर्जना में जुटी हैं। 2024 का चुनाव उनका होगा।

वह बुलबुला तो तभी फूट गया था, पर रही-बची कसर इस चुनाव ने पूरी कर दी। वजह? शिवसेना में बगावत से शरद पवार महाराष्ट्र में सिमटकर रह गए और ममता बनर्जी अभी तक राष्ट्रीय अपील बनाने में सफल नहीं साबित हुई हैं। 


फिर बीजू पटनायक और जगनमोहन तो हैं ही। वे अपने प्रदेश से भाजपा को दूर रखना चाहते हैं। उन्हें भाजपा जैसे मजबूत विपक्ष के बजाय एक कमजोर एनडीए और बिखरी हुई कांग्रेस चाहिए।

जगन ने तो अभी यह राह चुनी है, पर नवीन पटनायक पिछली पांच अवधियों से इसी तरह चुनाव जीतते चले आ रहे हैं। वह दिल्ली के सिंहासन से सीधा टकराव मोल न लेकर भुवनेश्वर की अपनी गद्दी सुरक्षित रखने में भला समझते आए हैं।

क्या यह दांव हमेशा कारगर रहेगा? अगले चुनाव में आंध्र और ओडिशा में इसकी परीक्षा होगी। 
अब उप-राष्ट्रपति प्रत्याशी और चुनाव पर आते हैं। एनडीए ने जगदीप धनखड़ को चुना, जबकि कांग्रेस ने अपनी पुरानी नेता मागेर्रट अल्वा पर दांव लगाया।

धनखड़ ने अब तक कुलजमा एक विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव जीता है। इसके मुकाबले अल्वा सिर्फ एक बार जनता के जरिये चुनकर आई हैं। वह नेहरू-गांधी परिवार की करीबी होने के कारण लंबे समय तक तमाम पदों को सुशोभित करती रही हैं। उनका सियासी कद बड़ा है, पर वह कुछ सालों से चर्चा से दूर थीं।

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