येदियुरप्पा की विदाई

काफी समय से इस बात के कयास लगाये जा रहे थे कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की विदाई हो सकती है। कुछ लोग उनकी शासन पर पकड़ ढीली होने को वजह बताते हैं, कुछ पुत्र के शासन-प्रशासन में बहुत ज्यादा हस्तक्षेप को तो कुछ भ्रष्टाचार के चलते पार्टी की धूमिल होती छवि को।

पार्टी में असंतोष के सुरों का भी जनता में अच्छा संदेश नहीं जा रहा था। तो कुछ का मानना है कि बढ़ती उम्र उनके पूरी पारी तक शासन करने के मार्ग में बाधा बनी। कहा जाता है कि भाजपा ने सैद्धांतिक तौर पर फैसला लिया है कि 75 साल से ऊपर के नेताओं को सरकार में बड़ी जिम्मेदारी नहीं दी जायेगी, जबकि येदियुरप्पा 78 साल के हो चुके हैं।

एक वजह यह भी बतायी जा रही है कि पार्टी ने उन्हें सिर्फ दो साल तक ही सरकार चलाने का वायदा लिया हुआ था। वैसे पिछले दिनों येदियुरप्पा की दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात के बाद भी अटकलों का बाजार गर्म हो गया था कि उनकी विदाई हो सकती है। बहरहाल, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने एक जोखिम भरा दांव चला है।

यह जानते हुए भी कि कर्नाटक की राजनीति में बड़ी दखल रखने वाले लिंगायत समुदाय का येदियुरप्पा को वरदहस्त प्राप्त है। यही वजह है कि कर्नाटक में जिन मठों से लिंगायत समुदाय को दिशा-निर्देश मिलते हैं, वहां येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद तल्खी देखी गई।

हालांकि, राज्य सरकार के दो साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम, जिसमें भावुक होकर उन्हें आंसू पोंछते देखा गया, उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व के प्रति आभार जताया और अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिये पुरजोर काम करने का वायदा किया। ये आने वाला वक्त ही बताएगा कि ढलती उम्र में वे किस तरह की भूमिका निभाएंगे और यह भी कि पार्टी नेतृत्व उन्हें क्या भूमिका दे सकता है। यह भी कि वे अपने उत्तराधिकारी को कितना मजबूत करते हैं।

निस्संदेह, दक्षिण भारत के इस अकेले राज्य में भाजपा को स्थापित करने में येदियुरप्पा की बड़ी भूमिका रही है। उन्होंने हाल ही में कहा भी कि प्रारंभिक दिनों में वे साइकिल से पार्टी का प्रचार किया करते थे क्योंकि उनके पास कार नहीं थी। आज पार्टी मजबूत स्थिति में है तो मुझे खुशी है। निस्संदेह लिंगायत समुदाय का भरपूर समर्थन येदियुरप्पा की बड़ी ताकत रही है, लेकिन चुनाव जीतने में कामयाबी के बावजूद वे कुशल प्रशासक की भूमिका में नजर नहीं आए।

खासकर अपनी मुख्यमंत्री की चौथी पारी में उनका नेतृत्व निस्तेज व अप्रभावी रहा। एक कुशल प्रशासक के रूप मे कोई ऐसा फैसला नजर नहीं आता जो राज्य के विकास के लिये नजीर बना हो। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद येदियुरप्पा ने सरकार बनायी लेकिन बहुमत का आंकड़ा न जुटा पाने के कारण मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने पर उनकी किरकिरी हुई थी, जिसका केंद्रीय नेतृत्व में अच्छा संदेश नहीं गया था।

फिर जद (एस) व कांग्रेस से आये विधायकों के बूते 2019 में वे किसी तरह सरकार बनाने में कामयाब तो हुए लेकिन वह दमखम वाली सरकार नजर नहीं आई। पार्टी में असंतोष तथा कमीशनखोरी के आरोपों से पार्टी के नेता भी खुद को असहज महसूस कर रहे थे।

बताते हैं कि पार्टी आलाकमान इस बात से नाखुश रहा है कि दक्षिण भारत में भाजपा का एकमात्र गढ़ होने पर कर्नाटक को दक्षिण भारत में भाजपा के विस्तार के लिये जो भूमिका निभानी चाहिए थी, उसका नेतृत्व येदियुरप्पा नहीं कर पाये।

प्रशासनिक स्तर पर नाकामी और पार्टी में उभरते असहमति के स्वरों ने केंद्रीय नेतृत्व को कर्नाटक में दो साल बाद होने वाले चुनाव की चिंता ने असहज किया। पार्टी ने सोचा कि किसी युवा नेता को सरकार चलाने का अवसर दिया जाये जो न केवल बेहतर प्रशासन दे, पार्टी को एकजुट भी रखे और आगामी विधानसभा चुनाव में सरकार की वापसी का मार्ग प्रशस्त कर सके।

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