वीरभद्र का जाना

हिमाचल प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री राजा वीरभद्र सिंह को अंतिम विदाई देने जो जन-सैलाब उमड़ा और जैसे गहरे रंजोगम का अहसास लोगों ने किया, उससे पता चलता है कि वे सिर्फ नाम के राजा नहीं थे, लोगों के दिलों में राज करते थे।

लोग राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से हटकर उन्हें अंतिम विदाई देने उमड़े जो उनके हिमाचल के विकास में योगदान व सदाशयता को ही दर्शाता है। निश्चय ही वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और अर्की से मौजूदा विधायक वीरभद्र सिंह का निधन हिमाचल की राजनीति में एक युग का अंत है।

उनकी जीवटता का पता इस बात से चलता है कि 87 वर्ष की उम्र में भी उन्होंने इस साल अप्रैल से जून के बीच दो बार कोरोना संक्रमण को मात दी। बढ़ती उम्र के दबाव के बावजूद वे ठीक तो हुए, लेकिन कोविड होने के बाद की शारीरिक जटिलताओं का मुकाबला न कर सके; जिसने उनके उस सार्वजनिक राजनीतिक जीवन पर विराम लगा दिया, जो वर्ष 1947 के बाद शुरू हुआ था।

देश के आजादी के बाद स्थापित जनतंत्र में भले ही वे रामपुर बुशहर रियासत के राजा थे, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों में उनकी गहरी आस्था थी। राज्य में छह बार मुख्यमंत्री बनना उनकी लोकप्रियता व लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था का पर्याय ही है।

वे अक्सर यह बताना पसंद करते थे कि पं. जवाहरलाल नेहरू ने उनसे राजनीति में सक्रिय होने का आग्रह किया था। वे सबसे पहले वर्ष 1962 में 27 साल की उम्र में सांसद बने।

दरअसल, सांसद बनने के बाद अगले छह दशकों में हिमाचल की राजनीति में कोई उनका सानी न था। छह बार राज्य का मुख्यमंत्री बनना उनकी लोकप्रियता की गवाही देता है। वे पांच बार लोकसभा के लिये चुने गये।

विभिन्न सरकारों में केंद्र में मंत्री भी बने। लंबे अर्से तक हिमाचल में उनकी पार्टी सुप्रीमो जैसी भूमिका बनी रही। कई बार नेतृत्व परिवर्तन की केंद्रीय हाईकमान की कोशिशों को उन्होंने नम्रता से स्वीकृति नहीं दी। उनके विधायक उनकी ताकत थे।

उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति कई बार केंद्रीय नेतृत्व को फरमानों पर भारी पड़ी। निस्संदेह हिमाचल की राजनीति में वीरभद्र के जाने से एक बड़ा शून्य पैदा हुआ है, जिसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है। मौजूदा दौर में लगातार पराभव से जूझती कांग्रेस के लिये उनका जाना बड़ी क्षति है। उनकी अद्वितीय लोकप्रियता का आभास उनके निधन के बाद उपजी सहानुभूति से होता है।

लेकिन उनके जाने से पैदा हुए शून्य का एक पक्ष यह भी है कि राज्य में उनकी जगह ले सकने वाला दूसरा राजनेता पार्टी में नहीं है। कांग्रेस के लिये बड़ा संकट यह भी कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी की बागडोर संभालने वाला अनुभवी नेता उपलब्ध नहीं है।

प्रत्याशियों के चयन में आम सहमति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वीरभद्र की कमी को पार्टी संगठन गहरे तक महसूस करेगा। निस्संदेह कांग्रेस पार्टी के लिये भी यह एक बड़ी क्षति है, जिसके चलते पार्टी में नेतृत्व को लेकर टकराव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।

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