पानी की कसक

हरियाणा के नूंह जिले में पानी का संकट और इसके चलते ग्रामीणों के पलायन की खबरें परेशान करने वाली हैं। यह नीति-नियंताओं पर भी सवाल है कि आजादी के सात दशक बाद भी लोग क्यों पेयजल संकट से जूझ रहे हैं।

व्यवस्था का मजाक देखिये कि खेती से जीवनयापन करने वाले लोगों को दैनिक पेयजल की जरूरतों को पूरा करने के लिये टैंकरों से पानी खरीदना पड़ रहा है। बताते हैं कि प्रशासन ने इस इलाके में कुएं और तालाब खोदने की योजना बनाई है, लेकिन व्यवस्थागत खामियों के चलते समय रहते योजनाएं सिरे नहीं चढ़ पातीं।

यदि वक्त पर इस दिशा में प्रयास किये जाते तो संकट को कम करने में मदद मिलती और ग्रामीणों को पलायन करने को मजबूर न होना पड़ता। दरअसल, हरियाणा का मेवात इलाका लंबे समय से भूजल की लवणता से जूझता रहा है। जो दर्शाता है कि यह इलाका विकास की प्राथमिकताओं में नहीं रहा है।

शासन-प्रशासन को प्राकृतिक रूप से संपन्न उन इलाकों में विकास को तरजीह देनी चाहिए, जो राज्य की उत्पादकता में योगदान करते हैं। ऐसे समय में जब धान की फसल लगाने का मौसम है, जल संकट परेशान करने वाला है।

कहीं न कहीं इसके मूल में मानसून की बेरुखी भी शामिल है। यदि समय रहते मानसूनी बारिश हो जाती तो शायद जल संकट की यह स्थिति न होती। यही वजह है कि जल संकट लोगों की जीविका को भी प्रभावित कर रहा है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति पंजाब के संगरूर जिले में भी है जहां नूंह की तरह जल संकट बना हुआ है।

डॉर्क जोन के रूप में घोषित इस इलाके में भूजल का स्तर तेजी से गिरा है। वहीं नलकूपों का पानी दूषित व उपभोग के लिये अनुपयुक्त होने की वजह से ग्रामीणों को पेयजल के लिये भाखड़ा नहर का सहारा लेना पड़ रहा है।

इस कोविड संकट के दौरान ग्रामीणों द्वारा नहर का अनुपचारित पानी पेयजल के रूप में उपयोग करना चिंता बढ़ाने वाला है। दूसरी ओर मानसून समय पर न आने और भूजल स्तर में गिरावट की वजह से धान की बुवाई की तारीखों को आगे बढ़ाया गया है।

बिजली संकट के चलते ट्यूबवेल का पानी भी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पा रहा है। यदि समय पर मानसून ने दस्तक दे दी होती तो इलाके के भूजल स्तर में सुधार आता। दरअसल, हर साल उत्पन्न होने वाले जल संकट को दूर करने के लिये योजनाबद्ध ढंग से काम होना चाहिए।

ऐसी योजनाओं पर तब भी युद्धस्तर पर काम होना चाहिए जब जल संकट न हो। जनसंख्या की वृद्धि और भविष्य की चुनौती के मद्देनजर दीर्घकालीन योजनाएं बनें। जल संकट होने के मतलब विकास की दौड़ में पिछड़ना भी होता है।

ऐसे में स्वच्छ जल आपूर्ति के मानक तय करके इस दिशा में गंभीर प्रयास हों। कोविड संकट में देश की अर्थव्यवस्था को संबल देने वाले कृषि क्षेत्र की जरूरत के मद्देनजर नीति-नियंताओं को सिंचाई व पेयजल की आपूर्ति को वरीयता देनी चाहिए।

इसके साथ ही हमें विचार करना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने पेयजल संकट का सदियों तक कैसे मुकाबला किया। हमारे गांवों के आसपास पेयजल के जो परंपरागत स्रोत अरसे तक सहेजे गये थे, हमने उन्हें बर्बाद होने दिया है।

जींद के किला जफरगढ़ के निवासियों ने पेयजल संकट होने पर गांव के बाहरी इलाके में बने एक सदी पुराने कुएं को पुनर्जीवित करके राहत की सांस ली है। इस कुएं को पंद्रह साल पहले लावारिस छोड़ दिया गया था।

जब सरकारी जल आपूर्ति बाधित हुई और नदी का जलस्तर गिरा तो लोगों ने कुएं की सुध ली। कभी यह कुआं पूरे गांव की जल आपूर्ति का एकमात्र स्रोत हुआ करता था। ग्रामीणों ने धन एकत्र किया और कुएं का जीर्णोद्धार किया।

अब इसके पानी का प्रयोग पीने व घरेलू जरूरतों के लिये किया जा रहा है। बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिये पेयजल के वैकल्पिक उपायों पर विचार करना जरूरी है।

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