बुनियादी शर्त

हथेली पर सरसों उगाना एक मुहावरा है, लेकिन केंद्र सरकार ने किसानों की हथेली पर जेनेटिकली मॉडिफाइड, यानी जीएम सरसों के जो बीज पिछले दिनों रखे, वे भारतीय कृषि के नजारे को काफी हद तक बदल सकते हैं। यह सब रातोंरात नहीं होगा, अभी तो केंद्र सरकार ने सिर्फ इसकी इजाजत ही दी है। अब हमारे पास है सरसों की एक ऐसी किस्म, जिसे 28 फीसदी तक अधिक उपज के दावे के साथ पेश किया गया है। हालांकि, खेतों में बड़े पैमाने पर इस सरसों की बुवाई का मौका दो साल बाद ही आएगा। मगर एक उम्मीद बनी है, जो हो सकता है कि दूर तक भी चली जाए। ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि देश की किसानी इस समय जिन संकटों से जूझ रही है, क्या उसमें इस तरह की फसलें कुछ मदद कर सकेंगी?
बीटी कपास एकमात्र ऐसी जीएम फसल है, जिसकी लंबे समय से देश में बुवाई हो रही है। इसकी बदौलत देश कपास के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक बन गया है। फिर, तरह-तरह के कीटों के प्रकोप से कपास की फसल जिस तरह से पहले पूरी तरह बर्बाद हो जाया करती थी, वैसी घटनाएं इतनी कम हो गई हैं कि अब उनकी चर्चा भी नहीं होती। निस्संदेह, कपास किसानों से जुड़ी बर्बादी की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन क्या उनकी हालत भी बेहतर हुई है? कपास किसानों की माली हालत की तुलना अगर हम गेहूं या अन्य फसलें उपजाने वाले किसानों से करें, तो उनमें कोई बड़ा अंतर नहीं दिखता। 
जीएम सरसों को हरी झंडी दिखाने के फैसले को कुछ विशेषज्ञों ने दूसरी हरित क्रांति की शुरुआत कहा है। एक अर्थ में यह बात सही भी साबित हो सकती है। पहली हरित क्रांति तब हुई थी, जब देश भीषण खाद्य संकट से गुजर रहा था। आज भी कुछ लोग उस हरित क्रांति की ढेर सारी खामियां गिनाते हैं, लेकिन उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। इस दूसरी हरित क्रांति की बात उस समय हो रही है, जब देश खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भरता से लगातार दूर जा रहा है। देश की खाद्य तेलों की 60 फीसदी जरूरत आज भी आयात से पूरी होती है। आयात पर इस निर्भरता को खत्म करना है, तो तिलहन की उपज तेजी से बढ़ानी होगी, जीएम सरसों में जो वादा या दावा किया जा रहा है, उससे भी कहीं ज्यादा तेजी से।

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