रोड़ा न बने पहनावा

पिछले हफ्ते, सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने हिजाब मामले में विभाजित फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा और एक समान ड्रेस कोड व हिजाब सहित तमाम धार्मिक प्रतीकों को कक्षाओं में प्रतिबंधित करने का समर्थन किया। दूसरी तरफ, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने कर्नाटक सरकार के आदेश को दरकिनार करते हुए इस बात पर सहमति जताई कि लड़कियों को चयन का अधिकार मिलना चाहिए। अब देश के प्रधान न्यायाधीश तय करेंगे कि अगली पीठ का आकार क्या हो और कौन-कौन न्यायमूर्ति इस मामले की सुनवाई करेंगे? बेशक, अदालती फैसला सांविधानिक सिद्धांतों और कानूनों पर टिका होता है, लेकिन यह विभाजित निर्णय मौजूदा ध्रुवीकृत समय की सच्चाई भी बयां करता है।
यह आश्चर्य की बात है कि कर्नाटक में स्कूल प्रबंधन समिति, जिसकी अध्यक्षता स्थानीय राजनेता करते हैं, माता-पिता से बात करके हिजाब पर गतिरोध का हल नहीं निकाल सकी। इसके बजाय, मामला देश के सर्वोच्च न्यायालय में चला गया। यह घटनाक्रम संकेत है कि बीमारी कहीं गहरी है। विद्यार्थियों का जीवन और उनका भविष्य धर्म व राजनीति के बीच फंसा नजर आता है। लगता है, शिक्षा पाने का उनका अधिकार संविधान के पन्नों में ही सिमटकर रह जाएगा, और उनका जीवन व्यावहारिक राजनीति से तय होगा।

अब यह कोई छिपा तथ्य नहीं रहा कि हिजाब और नकाब इस्लाम में अनिवार्य नहीं हैं। मजहबी साक्ष्य इसकी पुष्टि करते हैं। हिजाब पितृसत्तात्मक समाज द्वारा औरतों पर नियंत्रण करने के लिए थोपा गया है। यह बात हिजाब के खिलाफ ईरान में चल रहे आंदोलन से भी हम बखूबी समझने लगे हैं। ईरानी महिलाएं तो खुलकर कह रही हैं कि उनके लिबास किस तरह के होने चाहिए, इससे न मुल्क को मतलब होना चाहिए, और न मौलवियों को। रूढ़िवादी मौलवियों ने ही महिलाओं के लिए सख्त ड्रेस कोड की वकालत की है, और कुछ वर्गों में हिजाब को स्वीकृति मिल भी गई है। कुछ लड़कियां यही मानती हैं कि हिजाब महजबी इनायत है और इसे पहनने में उनकी खुशी है। कई तो इसके बिना अपने घरों से बाहर निकलने की कल्पना तक नहीं कर सकतीं। उडुपी में लड़कियों ने तो हिजाब की खातिर कक्षाएं, यहां तक की परीक्षाएं भी छोड़ दीं।
दरअसल, चयन एक जटिल मसला है, और यह हमारी सामाजिक कंडीशनिंग से प्रभावित होता है। कई महिलाएं अपने परिवार के लिए करियर तक छोड़ देती हैं और घर संभालने लगती हैं। पुरुष ऐसा बहुत कम करते हैं। सामाजिक-आर्थिक हकीकत, परंपरा, संस्कृति और धर्म उन महिलाओं के व्यवहार को कहीं अधिक प्रभावित करते हैं, जिन्हें आत्म-जागरूकता, शिक्षा और ज्ञान की राह पर चलने से महरूम रखा जाता है। देखा जाए, तो हिजाबी लड़कियों को भी इस यात्रा से दूर कर दिया गया है।

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