उलझी दुनिया को सुलझाता भारत

अभी दुनिया भर में काफी ज्यादा उलझन है। मगर भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर को न्यूयॉर्क में छह दिन और वाशिंगटन की उनकी यात्रा के शुरुआती दो दिन ‘कवर’ करते हुए मुझे यह सहज एहसास हुआ कि भारतीय कूटनीति किस कुशलता से इस अनिश्चित दुनिया से निपट रही है।

नई दिल्ली के लिए मौजूदा हालात खास हैं। रूस और यूक्रेन आपस में उलझे हुए हैं, लेकिन दोनों भारत के साथ दोस्ती के हिमायती हैं और नई दिल्ली को युद्ध के मामले में अपने पक्ष में करना चाहते हैं।

यूरोप और अमेरिका इस जंग के प्रमुख खिलाड़ी हैं, जो कीव की मदद कर रहे हैं, लेकिन रूस के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाली उनकी किसी कार्रवाई में भारत के भाग न लेने और उसकी उदासीनता के बावजूद वे नई दिल्ली के रुख से संतुष्ट हैं। एशिया, अफ्रीका व लातीन अमेरिका के छोटे-छोटे देश युद्ध के खिलाफ हैं और वे इस बात से दुखी हैं कि बिना किसी गलती के उनको इसका खमियाजा भुगतना पड़ रहा है।

मगर दुनिया भारत की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखती है, क्योंकि वह युद्ध के परिणामों के बारे में उन वैश्विक मंचों पर अपनी बात साफगोई से कह सकता है, जहां उस दुनिया की पहुंच बहुत कम है।

संयुक्त राष्ट्र का शीर्ष नेतृत्व तो भारत को घटनाक्रम से अवगत करा रहा है और इस तनातनी को खत्म करने के महत्वपूर्ण साझेदार के रूप में उस पर भरोसा करता है।
जाहिर है, युद्ध से जुडे़ और इससे परे अहम रणनीतिक व विकास संबंधी मुद्दों पर दुनिया भारत का साथ चाहती है। कोई इसे विदेश मंत्रालय का वक्तव्य समझने की भूल न करे, बल्कि निजी अनुभव है।

हिन्दुस्तान टाइम्स  ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अलावा सात देशों के विदेश मंत्रियों से अलग से बात की, संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों से चर्चा की और दो सप्ताह पहले लॉस एंजिल्स में ‘इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क मीट’ के इतर कई दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के राजनयिकों का मत जाना। ये तमाम लोग भारत का अधिकाधिक साथ चाहते हैं।


जहां ऑस्ट्रिया, एस्टोनिया और फिनलैंड ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के युद्ध संबंधी बयान पर प्रधानमंत्री मोदी की टिप्पणी की तारीफ की और नई दिल्ली के साथ द्विपक्षीय रिश्ते को मजबूत बनाने पर जोर दिया, वहीं मेडागास्कर ने यह बात दोहराई कि वह किस तरह से ‘भारत, भारतीयता और हिंद महासागर से जुड़ा रहा है’।

उसकी इच्छा है कि छोटे देशों पर युद्ध के असर को कम करने के लिए नई दिल्ली के साथ साझेदारी बढ़ाई जाए। इसी तरह, ऑस्ट्रेलिया ने क्वाड में भारत की भागीदारी की सराहना की, तो लीबिया चाहता था कि उसके संक्रमणकालीन दौर में नई दिल्ली अधिक भागीदारी करे और त्रिपोली में अपना दूतावास फिर खोले।

बोलीविया जहां लिथियम के दोहन संबंधी परियोजनाओं में हिस्सेदारी के लिए भारत को बुलाना चाहता है, तो दक्षिण एशियाई राष्ट्र चाहते हैं कि भारत इस क्षेत्र में संतुलन लाने के लिए और अधिक सक्रियता दिखाए, जबकि वे आर्थिक रूप से चीन के साथ कहीं अधिक मजबूती से जुड़े हुए हैं।


एक सार्वजनिक कार्यक्रम में यदि गुयाना के विदेश मंत्री ने रुंधे गले से महामारी के दौरान भारत की तरफ से मिली मदद के लिए शुक्रिया कहा, तो यमन ने भारत की खाद्य सहायता की तारीफ की। अगर तंजानिया मौजूदा दौर के तमाम बड़े मुद्दों पर भारत से सहमत है, तो संयुक्त राष्ट्र भारत के डिजिटल-संचालित वित्तीय समावेशन, कल्याण और नकद हस्तांतरण मॉडल को समझने व दोहराने का पक्षधर है।


अमेरिका के ही कई हलकों को लें। जहां पेंटागन चीन की चुनौती के बारे में स्पष्ट था और उसने भारत से कहा कि वह द्विपक्षीय सैन्य अभ्यासों को मजबूत बनाना चाहता है, तो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने भारत के साथ हर क्षेत्र की उन्नत तकनीकों पर काम करने को लेकर उत्सुकता दिखाई।

फिर चाहे वह राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला हो, आर्थिक सहयोग का या फिर प्रतिभाओं का हरसंभव लाभ उठाने का। यदि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन ने मंगलवार के आधिकारिक समझौते से पूर्व वैश्विक हालात पर विचार-विमर्श के लिए भारतीय विदेश मंत्री को सोमवार को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया, तो वाणिज्य मंत्रालय अमेरिकी कंपनियों को भारत भेजने व प्रमुख सामग्रियों की आपूर्ति शृंखला में नई दिल्ली की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी को लेकर आशान्वित दिखा।

ह्वाइट हाउस भारत को स्पष्ट समर्थन देते हुए सुरक्षा परिषद में सुधार को अपना स्वर दे रहा है, तो संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ भारत के साथ मिलकर काम कर रहा है। यहां आप पाकिस्तान के बेजा विलाप से कतई विचलित न हों। भारत की व्यस्तता कुछ अलग किस्म की है।


ये वे चंद बातें हैं, जो हाल-फिलहाल भारत को लेकर कही गई हैं। इसका अर्थ है कि भारत खुद को बहुत मुफीद स्थिति में देख रहा होगा। चीन नई दिल्ली को अमेरिकी रणनीतिक गुणा-भाग में अहम मानता है, पर रिश्ते सिर्फ वाशिंगटन तक सीमित नहीं हैं। मित्र-राष्ट्रों की चाहत और आर्थिक व सुरक्षा जुड़ाव दिल्ली को मास्को के लिए भी महत्वपूर्ण बना देता है।

फ्रांस भारत की सामरिक स्वायत्तता संबंधी परंपरा का मुरीद है, तो मध्य यूरोपीय, बाल्टिक और स्कैंडिनेवियाई देशों को दिल्ली की युद्ध की मुखालफत पसंद है। जापान और ऑस्ट्रेलिया मित्र राष्ट्र हैं। पश्चिम एशियाई देशों और इजरायल के साथ संबंध कभी इतने अच्छे नहीं रहे।

यानी, अपने विकास मॉडल को बढ़ाने और दुनिया के कुछ हिस्सों में उसके विस्तार की क्षमता नई दिल्ली को वैश्विक स्थिति के लिहाज से आकर्षक बना रही है। सांस्कृतिक संबंध कैरिबियाई, अफ्रीका और प्रशांत द्वीप समूह में भारत को लोकप्रिय बनाते हैं। बाजार का आकार, तकनीक में बढ़त और अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में समझाने-बुझाने वाला नजरिया, यानी ‘सॉफ्ट पावर’ तो भारत के कुल रुतबे में इजाफा करता है।


ये सब रणनीतिक विकल्प चुनने, अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने, वैश्विक जनता की भलाई में योगदान देने का दबाव भारत पर बनाते हैं, और यह सुनिश्चित करने की ताकीद भी करते हैं कि वह लोकतंत्र व बहुलतावाद का प्रकाश स्तंभ बना रहेगा। यदि भारत वैश्विक राजनीति को यूं ही दिशा देता रहा, तो दुनिया के लिए यह काफी अच्छा सहयोगी साबित होगा। साफ है, यह वक्त हमारे लिए काफी अहम है।

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