कट्टरता की तह 

राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और राज्य पुलिस बलों द्वारा पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के खिलाफ की जा रही राष्ट्रव्यापी कार्रवाई ने जोरदार, लेकिन आरोप-प्रत्यारोपों वाली बहस शुरू कर दी है। एक मुखर खेमा मानता कि मुस्लिम-विरोधी खास एजेंडे को आगे बढ़ाने के कारण पीएफआई को निशाना बनाया जा रहा है, जबकि दूसरा वर्ग इस बात के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान की तारीफ कर रहा है कि उसने एक ऐसे संगठन के खिलाफ कार्रवाई की है, जो व्यवस्था को अस्थिर करने पर आमादा है।

हालांकि, निष्पक्ष विचारक इन दोनों मतों के बीच कहीं सच के छिपे होने की बात कह सकते हैं।पीएफआई तीन इस्लामिक गुटों के विलय के साथ साल 2006 में अस्तित्व में आया। अपनी उग्र भाषा और मुस्लिम समुदाय को हिंदू पूर्वाग्रह के शिकार के रूप में चित्रित करने के कारण इसने अधिकारियों का ध्यान अपनी ओर खींचा।

इसी पृष्ठभूमि के कारण वह स्पष्ट करता है कि दक्षिणपंथी हिंदूवादी तत्वों के खिलाफ लड़ने के लिए वह संकल्पित है, चाहे इसके लिए उसे जिस किसी साधन का इस्तेमाल करना पडे़। नतीजतन, पिछले एक दशक में हिंसा खूब बढ़ी है, खासकर दक्षिण भारत में। केरल, जहां एक बड़ी और दबदबा रखने वाली मुस्लिम आबादी है, पीएफआई का गढ़ है और इस समुदाय के खिलाफ कथित अन्याय को लेकर यहां अक्सर संघर्ष होते रहे हैं।


शुरुआती दिनों में पुलिस की प्रतिक्रिया सुस्त और बिखरी हुई थी। यह जाहिर तौर पर सत्ता की तरफ से स्पष्ट दिशा-निर्देश के अभाव के कारण था। तब भ्रमित पुलिस पदानुक्रम के कारण भी पीएफआई के खतरों से निपटने के लिए जरूरी कार्रवाई को लेकर आम सहमति नहीं बन पाई। पुलिस नेतृत्व इस बात को लेकर सावधान रहता था कि ऐसी किसी कार्रवाई से उस पर धार्मिक पूर्वाग्रह के लांछन न लग जाएं।


साल 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार की ताजपोशी और कुछ राज्यों में बदलाव से कानून लागू करने संबंधी नजरिये में स्पष्टता आई है। राजनीतिक दिशा अब कहीं अधिक स्पष्ट और सख्त कार्रवाई की पक्षधर है। हाल के छापों और महत्वपूर्ण दस्तावेजों की जब्ती से हम इसे आसानी से समझ सकते हैं। यहां तक कि मीडिया से बातचीत के दौरान भी एजेंसियों ने मामले की गंभीरता कम नहीं आंकी। उनकी यह साफगोई भविष्य के लिए उम्मीद जगाती है। 


एजेंसियों ने साफ कहा है कि पर्याप्त सुबूतों व राह भटके पीएफआई काडर व संगठन से सहानुभूति रखने वालों की पहचान करने के बाद ही छापेमारी की कार्रवाइयों को अंजाम दिया गया। यह बताता है कि उन्होंने गैर-कानूनी कृत्यों को बेपरदा करने के लिए किस कदर की मेहनत की होगी।

छापेमारी व गिरफ्तारियों के बाद हिंसा की छिटपुट घटनाओं से पता चलता है कि पीएफआई नेतृत्व इन कार्रवाइयों को लेकर बेखबर था। अपनी योजना को इस कदर गोपनीय बनाए रखने के लिए एनआईए व ईडी, दोनों को बधाई देनी चाहिए, क्योंकि कई मामलों में हमने देखा है कि विश्वासघातियों ने अपराधियों या संदिग्धों को पहले ही संवेदनशील जानकारियां लीक कर दीं। 


यह मानने की भी ठोस वजह है कि कुछ पीएफआई सदस्य सीमा-पार के आतंकी गुटों के साथ मिल गए थे। हालांकि, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में यह दुरभिसंधि दिखी है और इसे तोड़ा जाना आवश्यक है। यह विश्वास करना कठिन है कि पीएफआई गोपनीय तरीके से जो कर रहा था, उससे राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई खतरा नहीं था।

अगर सरकार को दोष देना है, तो इस तरह की कार्रवाई पहले न किए जाने के लिए उसको दोषी मानना चाहिए। हालांकि, मेरा यही मानना है कि अधूरी तैयारी या पर्याप्त सुबूतों के अभाव में की गई कार्रवाई से बेहतर है, कुछ समय के लिए इंतजार करना। लिहाजा सवाल यह है कि अब आगे किस तरह की चुनौतियां आने वाली हैं? निश्चय ही, कई जटिल मुद्दे हमारा इंतजार कर रहे हैं, क्योंकि काम का एक छोटा हिस्सा अभी पूरा हुआ है। 

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