पिंजरे का तोता
सीबीआई का विवादों से पुराना रिश्ता रहा है। इसलिए जब खबर छपी कि नीरा राडिया टेप मामले में सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायालय में यह कहकर क्लोजर रिपोर्ट लगा दी है कि उसे इनमें ऐसा कुछ नहीं मिला, जिनसे किसी आपराधिक कृत्य का होना पाया गया हो, तब कुछ भृकुटियां तनी जरूर, पर अधिकतर लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ। सीबीआई को यूं ही ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ या ‘पिंजरे का तोता’ जैसी उपाधियों से नवाजा नहीं गया है।
एक दशक से भी पुराना यह मामला इनकम टैक्स अधिकारियों द्वारा 2008-09 में सत्ता के गलियारों में उन दिनों के बहुचर्चित नाम नीरा राडिया और तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा के बीच कई किस्तों में होने वाले वार्तालाप की रिकॉर्डिंग से संबंधित है। टेप में दर्ज आवाजें सिर्फ इन्हीं दोनों की नहीं हैं। इनमें दर्ज हैं उन सभी तबकों के बड़े प्रतिनिधियों के स्वर, जो भारतीय तंत्र में फैसलाकुन भूमिका निभाते हैं। इनमें दलाल, नेता, नौकरशाह, उद्योगपति, पत्रकार और गैर-सरकारी संगठनों से जुड़े भांति-भांति के जीव हैं। आजकल दलाल अपने को ‘पॉलिटिकल लॉबिस्ट’ कहलवाना पसंद करते हैं और नीरा राडिया भी इसी श्रेणी में आती हैं। उनके बीच जो बातें हो रही हैं, वे लाइसेंस, कोटा या परमिट देने-दिलाने तक ही सीमित नहीं हैं, उनमें कुछ तो खतरनाक हद तक उन सीमाओं को लांघती हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी हैं। मसलन, इन टेप में दर्ज कुछ आवाजें केंद्रीय मंत्रिमंडल में खास नाम जुड़वाने और उन्हें अपने मतलब के विभाग आवंटित कराने की बातें कर रही हैं।
नीरा राडिया प्रकरण शुरू हुआ यूपीए सरकार के दौरान और इसका पटाक्षेप हो रहा है एक ऐसे दौर में, जब एनडीए की सरकार है। उन दिनों यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगे थे और खास तौर से संचार मंत्रालय में चल रही टू-जी स्पेक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया बुरी तरह से शक के दायरे में थी। यहां तक कि विभाग के मंत्री और सचिव समेत कई वरिष्ठ अधिकारी जेल तक गए। इन आरोपों के चलते यूपीए सरकार का पतन भी हुआ।
सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट कई अप्रिय सवाल खडे़ करती है। पहला तो संस्था की छवि से ही संबंधित है। कब यह खुद महसूस करेगी कि शाहे वक्त को खुश करते-करते उसने अपनी छवि का भट्ठा बैठा लिया है? सुप्रीम कोर्ट ने तो झुंझलाकर उसे ‘पिंजरे का तोता’ तक कह डाला था। आज जब देश से एकदलीय सरकारों का दौर खत्म हो गया है, तब आधा दर्जन राज्य सरकारों ने उससे स्वत: तफ्तीश करने का अधिकार वापस ले लिया है। ज्ञातव्य है कि राज्य सरकारों के कर्मियों के विरुद्ध कदाचार या राज्यों में होने वाले आपराधिक मामलों में बिना राज्यों की अनुमति के सीबीआई कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। जब तक केंद्र और राज्यों में एक ही दल की सरकारों का दौर रहा, राज्यों ने उसे स्वत: संज्ञान लेने का अधिकार दे रखा था, पर एक बहुदलीय संघीय गणतंत्र में तो हमेशा इसकी गुंजाइश बनी ही रहेगी कि अलग-अलग दल राज्य और केंद्र में शासन करें। ऐसे में, स्वाभाविक है कि कुछ राज्यों को लगा, सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है और उन्होंने अपनी इजाजत वापस ले ली। यह राज्यों से अधिक सीबीआई के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी साख का मसला जुड़ा हुआ है।
इसे भी एक विडंबना ही कहेंगे कि आज भी आम नागरिक या न्यायालय किसी प्रकरण में त्वरित या निष्पक्ष विवेचना के लिए सीबीआई की तरफ ही देखते हैं। राज्यों में जैसे ही कोई गंभीर मसला होता है, स्थानीय पुलिस के प्रदर्शन से निराश नागरिक सीबीआई जांच की मांग करते हैं। वे इस मांग को लेकर अदालत जाते हैं, तो कई बार अदालतें स्वत: संज्ञान लेकर कुछ मामले सीबीआई को सौंप देती हैं। अक्सर सीबीआई उन्हें निराश भी नहीं करती। स्पष्ट है कि उनके पास राज्य पुलिस को लेकर बहुत अच्छे अनुभव नहीं होते हैं। संसाधनों व विशेषज्ञता को लेकर सीबीआई निश्चित रूप से ज्यादा बेहतर स्थिति में है। फिर ऐसा क्या है कि सीबीआई नीरा राडिया जैसे दलदल में खुद को फंसा लेती है और अपनी साख का बंटाधार कर बैठती है?
अगर हम गौर से देखें, तो सीबीआई और राज्य पुलिस- दोनों का प्रदर्शन व्यापक पुलिस सुधारों के मुद्दों से जुड़ा हुआ है। जिस मुख्य कारण से राज्य पुलिस असफल होती है, वही सीबीआई की विफलता के लिए भी जिम्मेदार है। यह है इन संस्थाओं में गैर-पेशेवर दखलंदाजी, जो मुख्य रूप से सत्ता पार्टी द्वारा होती है। आजादी के बाद कई पुलिस आयोग बने और उनकी सिफारिशें सचिवालयों में धूल फांक रही हैं। प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे, जिनका राज्यों ने आधे-अधूरे मन से अनुपालन किया और नतीजतन उनका कोई खास असर नहीं दिखता। इसी तरह, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश जारी जरूर किए, पर संस्था की कार्य-प्रणाली पर उसका बहुत असर हुआ हो, ऐसा नहीं लगता।
जिस टेप प्रकरण मामले में सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट लगाई है, उसमें कुछ भी गोपनीय नहीं रह गया था। कॉरपोरेट प्रतिद्वंद्विता ने टेप की प्रतियां आम जनता तक पहंुचा दी थीं, इसलिए कहा जा सकता है कि यहां सारे अधोवस्त्र सार्वजनिक रूप से धुले गए। एक पात्र के वकील ने कहा कि इनमें नितांत निजी बातें हैं, लिहाजा उन पर अदालत में चर्चा नहीं की जा सकती है। यह समझ में नहीं आता कि चंद मिनटों की रसीली बातें सैकड़ों घंटों की गंभीर चर्चा को नितांत निजी कैसे बना सकती है, जिनमें उन बड़े सौदों की बातें हो रही हैं, जो देश की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण थे? क्या हम एक बनाना रिपब्लिक हैं कि सत्ता के गलियारों में मटकने वाले कुछ दलाल खुलेआम बातें करें कि मंत्रिमंडल में किसे शरीक कराना है और उसे कौन सा विभाग दिलाना है? अगर किसी ने ये टेप सुने हों, तो वह सहमत होगा कि लगभग हर वार्तालाप कोई ऐसा द्वार खोलता था, जिसके अंदर घुसते ही भ्रष्टाचार व अपराध की ऐसी दुनिया झलकती थी, जिसकी गहराई से जांच होनी चाहिए थी। सीबीआई ने यह दावा करके कि इन बातचीत से किसी अपराध की गंध नहीं मिलती, अपनी छवि को तो चोट पहुंचाई ही, उसने राष्ट्र-सेवा का स्वर्णिम अवसर भी गंवा दिया, जिसमें वह कुछ बड़े मगरमच्छों को कठघरे में खड़ा कर सकती थी।