न हो कोई कटौती
सरकार को देश में कितने लोगों को क्या-क्या मुफ्त देना चाहिए और कब तक देना चाहिए? और, जो चीजें बिल्कुल मुफ्त न दी जा सकें, उन्हें खरीदने के लिए सरकार की तरफ से किस तरह की मदद या सब्सिडी मिले, यह बहस देश-दुनिया के अर्थशा्त्रिरयों और राजनेताओं के बीच लंबे समय से चलती रही है। हालांकि, पहले अर्थशा्त्रिरयों ने ही सरकारों को यह रास्ता दिखाया था। मगर दुनिया के आर्थिक समीकरण बदलने के बाद, खासकर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों की भूमिका प्रभावी होने के साथ यह स्थिति भी बदल गई।
कल्याणकारी राष्ट्र का मतलब यही होता है कि देश अपने तमाम नागरिकों के आर्थिक व सामाजिक हितों का ध्यान रखेगा और उनकी सुरक्षा का इंतजाम करेगा। यही नहीं, अवसरों की समानता, यानी सभी लोगों को बराबर मौके देना और देश में संपत्ति का उचित वितरण भी सरकार या राष्ट्र की अहम जिम्मेदारी है। यही वजह है कि ज्यादा कमाने वालों पर आयकर, व्यापार करने वालों पर एक्साइज ड्यूटी, सीमा शुल्क और बिक्री कर जैसे टैक्स लगाए गए। अब इनमें से ज्यादातर जीएसटी में शामिल हो चुके हैं। फिर भी, सरकार कमाने वालों पर आयकर और खर्च करने वालों पर जीएसटी लगाकर कमाई कर रही है।
पिछले वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष करों से हमारी सरकार की कुल आमदनी 16,34,454.95 करोड़ रुपये रही। चालू वित्त वर्ष में 8 सितंबर तक यह आंकड़ा 5.29 लाख करोड़ रुपये हो चुका है, जो पिछले साल के मुकाबले 30 फीसदी से भी ज्यादा बढ़ा है। वित्त वर्ष 2021-22 में प्रत्यक्ष कर की वसूली 49 प्रतिशत और अप्रत्यक्ष कर की वसूली 30 फीसदी बढ़ी है। दोनों को जोड़कर सरकार को इस साल 27.07 लाख करोड़ रुपये मिले। यह पिछले साल के मुकाबले रिकॉर्ड 34 प्रतिशत ज्यादा है, और बजट में जितनी कमाई का अनुमान था, उसके मुकाबले पूरे पांच लाख करोड़ रुपये ऊपर वसूली हुई। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार के पास पैसे आने की रफ्तार बढ़ रही है। कंपनियों के तिमाही नतीजे और शेयर बाजार में उनके शेयरों के भाव देखें, तो यह उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि जीएसटी और कॉरपोरेट टैक्स, यानी कंपनियों के आयकर के मोर्चे पर अभी सरकार की कमाई और बढ़ने के ही आसार दिख रहे हैं। इसी के साथ एक चीज और जोड़ लें। रसोई गैस के सिलिंडरों पर जो सब्सिडी मिला करती थी, अब ज्यादातर लोगों को नहीं मिल रही है। नतीजतन, 2017-18 में जहां इस पर सरकार का खर्च 37,000 करोड़ रुपये से ऊपर था, वह गिरकर पिछले वित्त वर्ष 2021-22 में सिर्फ 242 करोड़ रुपये रह गया। ऐसे में, क्या वजह है कि गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना आगे बढ़ाने के बजाय बंद करने का फैसला किया जाए? जिन लोगों को 2020 के लॉकडाउन के बाद से अनाज दिया जा रहा था, क्या वे इस हालत में आ चुके हैं कि उन्हें मदद की जरूरत नहीं रही? या फिर इस पर इतना खर्च हो रहा है कि सरकार बर्दाश्त नहीं कर पा रही है?
जुलाई में खाद्य मंत्रालय ने संसद में बताया कि 2020 में जब यह योजना शुरू हुई थी, तब से इस पर कुल खर्च 3.16 लाख करोड़ रुपये हुआ है। इस साल सितंबर तक योजना बढ़ाने के बाद यह आंकड़ा 3.4 लाख करोड़ रुपये हो जाता है। मोटे तौर पर एक तिमाही का खर्च 40 हजार करोड़ और साल का 1.6 लाख करोड़ रुपये होता है। पिछले अनेक चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत का श्रेय ऐसी योजनाओं और उनका लाभ पाने वाले लाभार्थियों को दिया गया है। फिर क्या हुआ कि सरकार कमाई बढ़ने और पैसा होने के बावजूद यह योजना रोकने का मन बना रही है?