कसौटी पर सच
संसद से सड़क तक हंगामे की वजह बनने वाला पेगासस मामला देश की शीर्ष अदालत तक जा पहुंचा है। इस बाबत दायर कई याचिकाओं पर दलीलें सुनने के बाद मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि यदि रिपोर्ट वाकई सही है तो मामला गंभीर बनता है। याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने इस बाबत केंद्र को नोटिस देने की भी मांग की। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को भी सुनवाई करेगा। दरअसल, राजनेताओं, एक्टिविस्ट, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया व कई वरिष्ठ पत्रकारों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। याचिकाओं में पेगासस मामले में कोर्ट की निगरानी में एसआईटी जांच की भी मांग की गई।
इस मामले में मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण व न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ सुनवाई कर रही है। कोर्ट ने सभी याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे अपनी याचिका की प्रति केंद्र सरकार को दें। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस मामले में संपूर्ण व व्यक्तिगत गोपनीयता के रूप में नागरिकों की निजता के बाबत विचार किया जाये। साथ ही अदालत से स्वतंत्र जांच की भी मांग की गई। कहा गया है कि सरकार जवाब दे कि स्पाइवेयर को किसने खरीदा।
कोर्ट ने भी माना कि यदि फोन इंटरसेप्ट हुए हैं तो मामला गंभीर है। ऐसी शिकायतें टेलीग्राफ अधिनियम के अंतर्गत आती हैं। याचिकाकर्ताओं के वकील कपिल सिब्बल का कहना था कि पेगासस का स्पाइवेयर केवल सरकारी एजेंसियों को बेचा जाता है। इसके जरिये नागरिकों के जीवन में बिना जानकारी का प्रवेश लोकतंत्र में निजता, गरिमा व मूल्यों का अतिक्रमण है।
हाल ही में एक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संघ ने दावा किया था कि देश में कई भारतीय मोबाइल पेगासस स्पाइवेयर के जरिये जासूसी के संभावित निशाने वाली सूची में शामिल थे। दलील दी गई कि यह सैन्य स्पाइवेयर नागरिकों की निगरानी के लिये इस्तेमाल करना अनुचित है जो नागरिकों की अभिव्यक्ति व निजी स्वतंत्रता के अधिकारों का भी अतिक्रमण है। बहरहाल, इन्हीं आरोपों के बीच संसद का मानसू्न सत्र हंगामे की भेंट चढ़ चुका है।
दरअसल, इस्राइली कंपनी एनएसओ समूह के पेगासस स्पाइवेयर से संबंधित विवाद कुछ वर्ष पूर्व भी प्रकाश में आया था। सरकार ने तब भी किसी तरह की अवैध निगरानी की बात से इनकार किया था। सरकार इन आरोपों को खारिज करते हुए दलील दे रही है कि सूचना और प्रौद्यगिकी कानून की सख्त व्यवस्था के चलते देश में ऐसा करना संभव नहीं है। लेकिन विपक्ष इस बाबत विश्वसनीय जवाब की मांग लंबे समय से कर रहा है।
इस बाबत पर्याप्त जांच न होने तक संसद से सड़क तक हंगामे व सरकार की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाने का खेल यूं ही चलता रहेगा। निस्संदेह, इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। बिखरा विपक्ष इसे मोदी सरकार की घेराबंदी का सुनहरा अवसर मानकर चल रहा है। कुछ विपक्षी दलों की कोशिश है कि इस बहाने भाजपा के खिलाफ विकल्प तैयार करने के लिये विपक्ष को एकजुट कर लिया जाये। इसकी कोशिशें कोलकाता से दिल्ली तक बराबर जारी हैं। वैसे इससे जुड़े विवाद दुनिया के तमाम देशों में उठे हैं और फ्रांस समेत कई देशों में मामले की जांच भी करायी जा रही है।
यहां तक कि दुनिया में खुद को सबसे मजबूत लोकतंत्र बताने वाले अमेरिका में भी पिछले दिनों एक अमेरिकी अदालत ने राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा नागरिकों की बड़ी पैमाने पर कराई गई फोन की जासूसी को संविधान के विरुद्ध बताया था। बहरहाल, लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों के अतिक्रमण को सत्ता के स्वभाव के चलते हल्के में लेना लोकतांत्रिक मूल्यों की भी अवहेलना ही है क्योंकि सत्ता की मनमानी के खिलाफ ही दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था का उदय हुआ है। तभी नागरिक स्वतंत्रता का उपयोग कर पाते हैं।
ऐसे में किसी विश्वसनीय जांच से किसी भी सरकार को पीछे नहीं हटना चाहिए। पिछले दिनों राजग गठबंधन के घटक दल जदयू के सुप्रीमो व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कहा था कि सरकार को प्रासंगिक तथ्य और आंकड़े सामने रखकर वास्तविकता से देश को अवगत कराना चाहिए। वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस विवाद की जांच के लिये एक आयोग का गठन भी कर चुकी हैं।