कितनी सियासत

इस पूरे महीने देश के विभिन्न हिस्सों में जो उथल-पुथल दिखी, उसका चेहरा पूरी तरह से युवा था। वे लोग, जो जुलूसों में तलवारें और कई दूसरे हथियार लहरा रहे थे, वे भी युवा थे और वे, जो अपत्तिजनक नारे लगा रहे थे, वे भी युवा थे।

तमाम मामलों में पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया, वे भी युवा ही हैं। हम चाहें, तो इस सबके लिए कुछ राजनीतिक दलों, संगठनों और गुटों को दोष दे सकते हैं, साथ में यह तर्क भी नत्थी किया जा सकता है कि इन सबके नेता नौजवान नहीं हैं और नौजवानों के जरिये वे बस अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं, लेकिन सड़कों पर अपनी आक्रामकता दिखाने के लिए उन्हें इस संख्या में युवा उपलब्ध हो रहे हैं, तो मामला और भी गंभीर हो जाता है।

इसी से जुड़ा एक सवाल यह है कि ऐसे नौजवान कुछ खास तरह की ताकतों को ही क्यों उपलब्ध हो रहे हैं? 

इसका एक दूसरा पहलू देखने के लिए हमें फ्रांस जाना होगा, जहां पिछले दिनों दूसरी बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ रहे इमैनुएल मैक्रों पहले चरण में आगे निकल गए। उस मतदान का जब आबादी के लिहाज से विश्लेषण किया गया, तो कई दिलचस्प बातें सामने आईं।

यह पाया गया कि अगर सिर्फ नौजवानों के वोटों को गिना जाता, तो मैक्रों तीसरे नंबर पर आते। नौजवानों की पसंद मध्यमार्गी मैक्रों की जगह वाम व दक्षिण, दोनों तरफ के अतिवादी थे।

इस पर टिप्पणी करते हुए एक पत्रिका ने लिखा कि इमेनुएल मैक्रों को उन लोगों ने पहले नंबर पर पहुंचाया, जिनके बाल या तो सफेद हो चुके हैं या फिर वे लोग, जिनके सिर से बाल विदा हो चुके हैं। फ्रांस दुनिया के उन देशों में से है, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा अब नौजवानी की उम्र पार कर चुका है। 


लेकिन फ्रांस अकेला ऐसा देश नहीं, जहां के युवा और पकी उम्र के लोग अपना राजनीतिक भविष्य बिल्कुल अलग-अलग तरह से देख रहे हैं। जर्मनी, इटली और स्पेन जैसे तमाम देशों के चुनावों में यही रुझान दिखा है। कुछ हद तक अमेरिका और ब्रिटेन में भी यही हुआ है। डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव हारने के बाद जिन लोगों ने कैपिटोल हिल पर धावा बोला था, उनकी उम्र का विश्लेषण भी ऐसी ही कहानी कहता है। 

इसमें कोई हैरत की बात भी नहीं है। जो सरकार से मिल रही पेंशन पर निर्भर हैं, जिन्हें तरह-तरह की किस्तें भरनी हैं या जिन पर परिवार की दूसरी जिम्मेदारियों का बोझ है, उनकी सोच उस नई उम्र की नई फसल से अलग होगी ही, जिनके अंदर कई तरह की बेचैनियां हैं और जिनका अभी दुनियादारी से ज्यादा पाला नहीं पड़ा है। यह हमेशा ही होता रहा है। 


एक सदी पहले, जब दुनिया वामपंथ की ओर बढ़ती दिखाई दे रही थी, तब पूरी दुनिया और खासकर यूरोप में एक चुटकुला चलता था। चुटकुला यह था कि 18 साल की उम्र तक अगर कोई वामपंथी न हो जाए, तो उसे डॉक्टर यानी मनोचिकित्सक को दिखाना चाहिए, और अगर कोई 50 साल की उम्र के बाद वामपंथी हो जाए, तो उसे भी डॉक्टर को दिखाना चाहिए।

यह भी कहा जाता रहा है कि क्रांतियां नौजवान कंधों पर सवार होकर ही सत्ता पर काबिज होती हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी यही कथानक पढ़ा जा सकता है। आजादी के बाद हुए संपूर्ण क्रांति आंदोलन को तो खैर पूरी तरह युवा आंदोलन ही माना जाता है। 

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