कमजोर कप्तानी

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान मशहूर क्रिकेटर रह चुके हैं। लेकिन क्रिकेट की भाषा में कहें, तो उनका आचरण उस बच्चे की तरह जान पड़ता है, जिसके पास बल्ला है और वही खेल खत्म करने की घोषणा करता है। राजनीति इस तरह से नहीं की जाती।

देश को चलाने के लिए सबकी सहमति अनिवार्य है। अगर इसके लिए कोई आईन (कानून) या संविधान बना है, तो उसका पालन होना ही चाहिए।

यदि राजनेता इसे अमल में नहीं लाएंगे, तो फिर राजनीतिक व्यवस्था में स्थिरता नहीं आ सकेगी और तब इससे ऐसी कई शासकीय चीजें उलझ सकती हैं, जिनको सुलझाना मुश्किल हो सकता है।

  पाकिस्तान की स्थिति यह है कि जब सूचना प्रसारण मंत्री फवाद चौधरी से पूछा गया कि मुल्क के आईन के मुताबिक, जब नेशनल असेंबली में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव, यानी ‘अदम-ए-एतिमाद’ पेश हो, तब उसे भंग नहीं किया जा सकता।

तो, इसके जवाब में फवाद चौधरी ने कहा, अविश्वास प्रस्ताव पेश ही नहीं हुआ, उसे तो स्पीकर ने रद्द कर दिया। अलबत्ता, इस पूरे मामले को उन्होंने अनुच्छेद- पांच से जोड़ दिया, जो पाकिस्तानी नागरिकों से मुल्क के प्रति वफादारी का वायदा लेता है।

जाहिर है, जब खुद के सही और विपक्ष के गलत होने का सर्टिफिकेट सरकार खुद बांटने लगे, तब राजनीतिक-व्यवस्था सही से नहीं चल सकती। अगर वाकई इमरान खान के पास बहुमत होता, तो वह तथाकथित विदेशी षड्यंत्र की जांच कराते और सच्चाई अवाम के सामने रखते। 


अब यह मामला पाकिस्तान की आला अदालत में है। हालांकि, जिस तरह का घटनाक्रम घट रहा है, उसमें शायद ही इमरान खान को कोर्ट से कोई राहत मिल सकेगी।

ज्यादा कयास इसी बात के हैं कि पाकिस्तान में आम चुनाव होंगे। वैसे भी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) करीब साढ़े तीन साल से सत्तारूढ़ है और अगले चुनाव में महज डेढ़ साल का वक्त बचा है।

इसीलिए आम चुनाव ही तय करेगा कि वहां कौन वजीर-ए-आजम बनेगा? इसी से यह भी पता चल सकेगा कि जनता किसके साथ है?


चुनावी समीकरण की बात करें, तो ऐसा लगता नहीं है कि इस बार पीटीआई पूर्ण बहुमत पा सकेगी। 2018 के चुनाव में उसे 149 सीटें मिली थीं, और नौ निर्दलीय सांसदों के साथ मिलकर उसने सरकार बनाई थी।

इस बार न सिर्फ सरकार की सहयोगी एमक्यूएम-पी जैसी पार्टियों के सुर बगावती हैं, बल्कि पीटीआई के 20-25 सांसदों ने भी अपनी सरकार पर अविश्वास जताया है।

जाहिर है, इमरान खान के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं है। फिर, क्षेत्रवार स्थिति भी देखें, तो पंजाब सूबा पीएमएल (नवाज) को पसंद करता रहा है, जबकि सिंध प्रांत पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और एमक्यूएम में बंटा दिखता है।

फ्रंटियर के क्षेत्र जरूर इस्लामपसंद पार्टियों, पीटीआई, जमायत उलेमा-ए-इस्लाम आदि से प्रभावित रहे हैं, लेकिन यहां पीटीआई का इतना दखल नहीं है कि वह 172 सीटों का जादुई आंकड़ा फिर से छू सके।


पाकिस्तान के लिए ये नए हालात नहीं हैं। ऐसा पहले भी हो चुका है। नवाज शरीफ तीन दफा प्रधानमंत्री बन चुके हैं, लेकिन एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके।

पिछली सदी के 80-90 के दशक में जब मैं इस्लामाबाद में था, तब साढ़े पांच साल के दौरान मैंने वहां पांच प्रधानमंत्री देखे। लगता है, यह सिलसिला फिर से शुरू हो गया है।

हालांकि, इस बार सरकार का कार्यकाल थोड़ा लंबा चला है। फिर भी, लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।
कहा जा रहा है कि मौजूदा घटनाक्रम की धुरी भी फौज है।

यह सही है कि फौज वहां की आका है और इसकी मर्जी के बगैर कुछ भी नहीं हो सकता। मगर इस बार वह तटस्थ लग रही है।

संभवत: इसीलिए इमरान खान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव इतनी दूर तक बढ़ सका कि उसे संसद में पेश किया गया।

फौजी अधिकारी बार-बार कह भी रहे हैं कि उनका इस सबमें कोई हाथ नहीं है। हालांकि, अगर संलिप्तता भी होती, तब भी वे यही राग अलापते। 


फिर भी, इस बार फौज की तरफ कोई उंगली नहीं उठा रहा। देखना यह है कि चुनाव में वह कितना तटस्थ रह पाती है।

वैसे, इस बार न नवाज शरीफ के दल में वह दम दिख रहा है और न ही बेनजीर भुट्टो की पार्टी में। इमरान पर तो खैर फौज के बोल बोलने के ही आरोप हैं।

यानी, आज वहां परवेज मुशर्रफ वाला दौर नहीं है। उस वक्त नवाज शरीफ, बेनजीर भुट्टो, आसिफ जरदारी जैसे नेताओं की प्रतिबद्धता थी कि वे फौज को जम्हूरी हुकूमत से अलग रखेंगे।

जब यहां पीपीपी की सरकार थी, तब नवाज शरीफ ने विपक्ष में रहते हुए भी फौज के साथ मिलकर तख्तापलट की कोशिश नहीं की, अलबत्ता वह पीपीपी का पूरा सहयोग करते रहे।

बेशक नवाज शरीफ हुकूमत से खफा थे, लेकिन तब राजनीतिक दल समझते थे कि आपस में लड़ने से फौज उन पर आसानी से नियंत्रण कर लेगी। 


रही बात भारत की, तो उप-महाद्वीप का एक बड़ा देश होने के नाते क्षेत्रीय स्थिरता कायम रखना हमारा एक बड़ा कर्तव्य है।

अभी न सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि श्रीलंका, मालदीव और नेपाल में भी अस्थिरता का माहौल है। अगर पड़ोसी देशों में इस तरह के हाल होंगे, तो क्षेत्रीय स्थिरता कभी कायम नहीं हो सकेगी।

इसलिए पाकिस्तान के साथ हमारे पारस्परिक रिश्ते भले ही खराब हों, लेकिन उसके हालात पर हमें कहीं ज्यादा नजर रखनी चाहिए।

हमें यह सोचना ही होगा कि पड़ोस में जारी उथल-पुथल क्या हमारे हित में है? जाहिर है, हमें दूरदर्शिता का परिचय देना होगा। संभव है कि पाकिस्तान की तरफ मदद के लिए बढ़ाए गए हमारे हाथ खाली रहें, पर हमें पहल करनी चाहिए।

पड़ोस अगर जल रहा हो, तो उसकी लपटें हमें भी प्रभावित करेंगी। हमें ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जो पड़ोसी राष्ट्रों को लाभ पहुंचाए।

हां, यह उन पर निर्भर है कि वे किस हद तक हमारे सहयोग को स्वीकार करते हैं। देखा जाए, तो हमारी सरकार इसी तरह काम करती भी रही है।

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