अवसरों की दास्तान

इतनी बड़ी जीत के बाद घोषणाओं की बरसात होनी ही थी। पंजाब के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद भगवंत मान ने 25 हजार युवाओं को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की है।

मुमकिन है कि ऐसी घोषणाएं आने वाले समय में कुछ और भी हों। पंजाब इस समय देश के उन राज्यों में है, जहां बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा है और रोजगार के अवसर सबसे कम।

जिस पंजाब में कभी बड़ी संख्या में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण बेरोजगार ट्रेनों की छतों पर लदकर पहंुचते थे, उसके पास आज अपने नौजवानों को देने के लिए कोई भविष्य नहीं है।

इसलिए ऐसी आधा दर्जन घोषणाएं अगर और भी हो जाएं, तब भी पंजाब की बेरोजगारी की समस्या हल होने वाली नहीं है।

हालांकि, कम या ज्यादा यह समस्या तकरीबन सभी राज्यों में है, लेकिन पंजाब में यह कुछ ज्यादा ही गहरी हो चुकी है। 


पंजाब ने पिछले चार दशक में अपनी चमक खोने के अलावा कुछ हासिल नहीं किया है। हरित क्रांति के तुरंत बाद के पंजाब को याद करें, तो यह देश का सबसे खुशहाल राज्य था।

इसके लहलहाते खेतों में पकी सुनहली फसलों और ट्रैक्टर पर भांगड़ा करते पंजाबी नौजवानों की तस्वीरें देश की तरक्की के उदाहरण के तौर पर सबको दिखाई जाती थीं।

इसे देश का सबसे प्रगतिशील प्रदेश कहा जाने लगा था। तमाम राज्यों को नसीहत दी जाती थी कि आगे बढ़ना है, तो पंजाब जैसा बनो।

लोग कहते थे कि बहुत जल्द पंजाब आर्थिक तौर पर तीसरी दुनिया का हिस्सा नहीं रह जाएगा। तब प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में इसका स्थान पूरे देश में सबसे ऊपर था। 


इसकी तुलना में अगर हम ताजा आंकड़े देखें, तो पंजाब का यह पहला स्थान धीरे-धीरे नीचे खिसकते हुए 19वें नंबर पर पहंुच गया है।

यहां तक कि पंजाब से अलग हुए दो राज्य हरियाणा और हिमाचल प्रदेश भी इस फेहरिस्त में उससे काफी ऊपर पहंुच चुके हैं।

कभी जो राज्य तीसरी दुनिया के अभिशाप से मुक्ति की ओर बढ़ता दिख रहा था, प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में आज वह नाईजीरिया और लाओस जैसे देशों के बराबर खड़ा दिखाई देता है।

उस समय जो पंजाब तरक्की की छलांग लगाने की कहानी था, अब वही पंजाब पिछड़ेपन के गर्त में लगातार लुढ़कने की कथा बनता जा रहा है। 


कृषि प्रधान होना कभी पंजाब की सबसे बड़ी ताकत हुआ करता था, आज कृषि उसकी संभावनाओं को संकुचित कर रही है।

खेती महाकवि घाघ के जमाने में एक उत्तम कार्य रही होगी, पर अब वह किसानों के लिए घाटे का सौदा बन चुकी है। दूसरी तरफ, राज्य की अर्थव्यवस्था को यह अलग तरह की पेचीदगी देती है।

आज अगर देश का कोई प्रदेश पूरी तरह कृषि पर आधारित है, तो उसका प्रगति की दौड़ में नीचे जाना तय सा हो जाता है।

अगर आप पिछले डेढ़-दो दशक को देखें, तो कृषि की विकास दर शून्य से चार फीसदी तक रही है। औसतन इसे दो फीसदी के आस-पास माना जाता है।

जब बाकी प्रदेश छह-सात से दस फीसदी तक की विकास दर दर्ज करा रहा हो, तो एक राज्य का दो फीसदी वाले कारोबार पर पूरी तरह निर्भर हो जाना उसके पिछड़ते जाने को सुनिश्चित कर देता है। 


पूरे देश की आर्थिक स्थिति को देखें, तो पिछले चार दशक में दो ऐसे बड़े मौके आए हैं, जब कुछ राज्यों ने नए अवसर को गले लगाया और बड़ी आर्थिक उपलब्धि हासिल की।

पहला मौका था सूचना तकनीक यानी आईटी से जुड़े उद्योगों का आगमन। दूसरा मौका था आर्थिक उदारीकरण का, जब देश भर में काफी संख्या में उद्योग लगे और विकास दर ने काफी तेज उछाल भरी।

जो भी राज्य इन दोनों मौकों का लाभ उठाने में कामयाब रहे, वे आज हमें आर्थिक विकास के ऊपरी पायदानों पर दिखाई देते हैं। पंजाब ने दोनों मौके गवां दिए। 


इसके कारण बहुत से गिनाए जाते हैं। एक तो यह कि राजनीति का सारा ध्यान किसानों के वोटों पर था, जिसे मुफ्त बिजली और सस्ते उर्वरक वगैरह से जीता जा सकता था।

इसके बाद नए उद्योगों का आगमन न तो किसी की प्राथमिकता में रह गया था और न ही किसी की प्रतिबद्धता में।

खुशहाल खेतों और खलिहानों वाले राज्य को समृद्धि की अगली मंजिल तक कैसे ले जाया जा सकता है, इसकी किसी के पास न तो दूरदृष्टि दिखी और न ही इसकी जरूरत किसी को महसूस हुई। 


दूसरा कारण शायद ज्यादा बड़ा है। जिस समय देश को ये दोनों मौके उपलब्ध थे, पंजाब अलग किस्म की समस्याओं से जूझ रहा था। वह पंजाब में आतंकवाद का दौर था।

उस दौर में वहां आम लोग तक जाने से हिचक रहे थे, तो निवेशक खैर क्या ही जाते। और तो और, लुधियाना के उद्योगपति गुड़गांव (गुरुग्राम) और फरीदाबाद में अपने निवेश के ठिकाने तलाश रहे थे। 


इस बदलाव को एक और तरह से भी देख सकते हैं। चार दशक पहले तक हरियाणा का गुरुग्राम पंजाब के औद्योगिक शहर लुधियाना के मुकाबले एक गांव ही था।

पिछले चार दशक में यह मिलेनियम सिटी की चकाचौंध में बदल चुका है, जिसके सामने लुधियाना अब एक हांफता हुआ कस्बा भर लगता है।

लुधियाना की ऐसी तुलनाएं देश के बहुत सारे दूसरे शहरों से भी की जा सकती हैं। इस दौरान बहुत से प्रदेशों ने अपने कई नए औद्योगिक क्षेत्र विकसित कर लिए हैं, जिनमें पंजाब का पड़ोसी हिमाचल प्रदेश भी है, लेकिन पंजाब अपने पुराने औद्योगिक क्षेत्रों की चमक बरकरार रखने में नाकाम रहा है। 


पंजाब के सामने आज जो चुनौतियां हैं, उनका समाधान कुछ हजार सरकारी नौकरियां देकर या महिलाओं के खाते में हर महीने एक हजार रुपये पहुंचाकर या बिजली का बिल कम करके नहीं किया जा सकता।

इस राज्य की परेशानियां किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में किए गए वादों से ज्यादा जटिल हैं। इसलिए सिर्फ उन वादों के लागू हो जाने भर से समस्याएं खत्म हो जाने वाली नहीं हैं।

दिक्कत यह है कि खोए हुए अवसरों को किस तरह हासिल करे, इस पर पंजाब की राजनीति में शायद ही कभी कोई विमर्श हुआ है। क्या यह विमर्श अब शुरू होगा, जब वहां लोगों ने बड़े उत्साह से एक राजनीतिक बदलाव को भारी जनादेश देकर गले लगाया है?

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