लाचारी की विदाई

महाशक्ति होने का दंभ भरने वाले अमेरिका ने बीस साल बाद अफगानिस्तान से जिन हालात में वापसी की, उसे मुसीबत से पीछा छुड़ाना ही कहा जायेगा। जिस तरह पहले मुख्य सैनिक अड्डे से रातों-रात उसके सैनिक निकले, उसने पूरी अफगानी सेना का मनोबल तोड़ दिया, जो फलत: तालिबानियों के सामने बिछ गई।

जिन तालिबानियों के सत्ता में काबिज होने की अवधि को अमेरिकी विशेषज्ञ कभी छह महीने, कभी तीन महीने बताते रहे, उन्होंने चंद दिनों में काबुल सरकार का पतन कर दिया। अमेरिका ने वापसी की जो तिथि 31 अगस्त तय की थी, उससे एक दिन पहले ही अमेरिका अफगानिस्तान से रात के अंधेरे में निकल गया।

आखिर अफगानिस्तान में कई ट्रिलियन डॉलर खर्च करने, ढाई हजार से अधिक सैनिक गंवाने तथा ढाई लाख अफगानियों की मौत के बाद अमेरिका ने क्या हासिल किया? वैसे तो अमेरिका की जैसी वापसी हुई, उसे आम भाषा में पिंड छुड़ाना ही कहेंगे। जब अमेरिका 2001 में अफगानिस्तान पहुंचा था तो तालिबान के धमाकों से उसका स्वागत हुआ था और विदाई के वक्त भी काबुल हवाई अड्डे पर हुए फिदायीन हमले के धमाकों से उसकी विदाई हुई।

तो क्या बदला अफगानिस्तान में? अमेरिका ने साख ही खोयी है। वह आतंकवादियों के खात्मे का दावा नहीं कर सकता। सही मायनो में तालिबानी संस्कृति ऐसे रक्तबीज के रूप में उभरी है, जिसका खात्मा असंभव नजर आता है। यही वजह है कि महाशक्तियों की कब्रगाह बने अफगानिस्तान में ब्रिटिश साम्राज्य, रूस और अब तीसरी महाशक्ति अमेरिका के पतन के बाद एक बार फिर तालिबान सत्ता में लौटा है।

बल्कि अब अमेरिका के जिन हथियारों पर तालिबान ने कब्जा कर लिया है, उसके बाद तो वह अत्याधुनिक हथियारों वाला दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी समूह बन चुका है। जो देर-सवेर भारत जैसे देशों के लिये परेशानी पैदा करेगा। अब भले ही तालिबान दावा करे कि वह आईएस-खुरासान गुट व अल कायदा के खिलाफ लड़ेगा, लेकिन हकीकत में सब मौसेरे भाई हैं, जिन्हें पाक ने अपनी जमीं पर सींचा है।

दरअसल, अमेरिका के इस सबसे लंबे युद्ध के परिणामों पर नजर डालें तो पाते हैं कि उसने अफगानिस्तान की लाखों जिंदगियों को खतरे में डाल दिया है। काबुल में सरकार के पतन के बाद कोई अन्य विकल्प न होने पर हवाई अड्डे पर लाचार अफगानियों का जो सैलाब उमड़ा, उसने आने वाले कल की भयावह तस्वीर उकेरी है।

तालिबानियों के हर चौक-चौराहे पर रोके जाने, आत्मघाती बम हमले व राकेट हमले के बीच अफगानी काबुल हवाई अड्डे की ओर बदहवास दौड़ते रहे। कुछ तो हवाई जहाज के पहियों तक में लटककर भागने के प्रयास में मौत के मुंह में समा गये। कई माएं तो अमेरिकी सैनिकों को अपने दिल के टुकड़े सौंपती रही कि इन्हें बचा लो, अब हम रहें, न रहें, ये बच्चे बच जाएं।

जो यह बताता है कि तालिबानी सत्ता का भय कितना क्रूर व भयावह है। अमेरिका व मित्र देश सवा लाख के करीब अफगानियों को निकालने का दावा कर रहे हैं, लेकिन उनका जीवन भी कितना बदलने वाला है? वे भी वर्षों तक अपनी जमीन से उखड़कर शरणार्थियों का जीवन जीने को अभिशप्त रहेंगे।

जार्ज बुश के सनक भरे फैसले की कीमत लाखों लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई और लाखों लोग दशकों तक चुकाते रहेंगे। खासकर वे लोग जो चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाये। अब देखना होगा कि तालिबान अफगानिस्तान को इस्लामिक अमीरात बनाकर क्या करना चाह रहा है। वह अभी जो चिकनी-चुपड़ी बातें कर खुद को बदला हुआ तालिबान बता रहा है, उसकी हकीकत देर सवेर सामने आएगी।

बीते सोमवार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव परित हुआ था, जिसमें तलिबान को इच्छुक अफगानियों का बाहर जाने देने के वायदे पर अमल करने, सहायता एजेंसियों को मानवीय मदद अभियान चलाने देने, महिलाओं व मानवाधिकारों का सम्मान करने तथा अफगान भूमि का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिये नहीं करने देने को कहा गया है।

उम्मीद करें कि तालिबान विश्व जनमत का सम्मान करेगा। नजर इस दहशत के बहते दरिया में हाथ धोने को आतुर पाक, चीन व रूस पर भी रहेगी।

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