परवाज

पंजाब कांग्रेस में लंबे समय से चले आ रहे वर्चस्व युद्ध के निष्कर्ष में भले ही कहा जा रहा हो कि कैप्टन अमरिंदर से लड़ाई में नवजोत सिंह सिद्धू असरदार साबित हुए और बाजी मार ली, लेकिन यह निष्कर्ष इस टकराव की सरल व्याख्या होगी। अब चाहे टकराव को टालने के लिये सिद्धू की पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी कर दी गई हो, लेकिन वे इस पिच पर आसानी से चौके-छक्के लगा पायेंगे, कहना कठिन है।

हालांकि, जातिगत, क्षेत्रगत व अन्य समीकरणों को साधने के लिये चार कार्यकारी अध्यक्ष बना दिये गये हैं, लेकिन दशकों से पंजाब की राजनीति की नब्ज पर हाथ रखने वाले राजनीति के पुराने खिलाड़ी कैप्टन को यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सिद्धू ने भले ही लंबे अरसे क्रिकेट खेला है, लेकिन कैप्टन ने लंबी पारी राजनीति ही खेली है। कहा जा रहा है कि इस प्रकरण में कांग्रेस आलाकमान ने परिपक्व रणनीति नहीं दिखायी।

वह भी ऐसे वक्त में जब पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए कुछ ही माह बाकी हैं। दोनों दिग्गजों में वार-तकरार का कोई अच्छा संदेश कम से कम जनता में तो नहीं ही गया है। वह तो कांग्रेस की किस्मत अच्छी है कि तीन कृषि सुधार कानूनों के चलते भाजपा पंजाब में हाशिये पर है और अकाली दल पूरी तरह चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी पंजाब में वह जमीन तैयार नहीं कर पायी है जो कांग्रेस के मुकाबले के लिये सामने खड़ी हो सके। बहरहाल, यह कहना जल्दीबाजी होगी कि कांग्रेस आलाकमान के मौजूदा फार्मूले से पार्टी में पैदा वर्चस्व का संकट खत्म हो जायेगा।

पंजाब की राजनीति के पुराने अनुभवी खिलाड़ी कैप्टन अमरिंदर इस बदलाव को सहजता से स्वीकार कर लेंगे, यह समस्या के समाधान की सतही व्याख्या होगी। कयास लगाये जा रहे हैं कि कैप्टन की तरफ से भी कोई चौंकाने वाली पहल हो सकती है। पंजाब के सांसदों की पिछले दिनों जारी सक्रियता भी कोई गुल खिला सकती है। अब चाहे लच्छेदार भाषा बोलने वाले नवजोत सिंह सिद्धू ने फिलहाल पंजाब की राजनीति में बढ़त ले ली हो, लेकिन हकीकत यह है कि क्रिकेटर से राजनेता बने सिद्धू राजनीति की चौसर पर कैप्टन अमरिंदर के मुकाबले उन्नीस ही साबित होंगे।

इसमें दो राय नहीं कि कैप्टन भले ही कांग्रेस आलाकमान के फैसले से सतही तौर पर सहमति जता रहे हों, लेकिन उनकी अनदेखी करते हुए जो कुछ हुआ जाहिरा तौर पर उन्हें नागवार गुजरा होगा। पहले भी कैप्टन ने नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी का अध्यक्ष बनाने पर सहमति तो जतायी थी लेकिन शर्त रखी थी कि पिछले कुछ समय में सिद्धू द्वारा उनके खिलाफ की गई अभद्र टिप्पणियों पर वे सार्वजनिक माफी मांगे। लेकिन वास्तव में उनकी शर्त पर पार्टी आलाकमान ने कान नहीं धरा।

कांग्रेस पार्टी को नहीं भूलना चाहिए कि देश में जब-जब कांग्रेस विरोधी लहर रही, कैप्टन पार्टी को बचाने के लिये चट्टान की तरह खड़े रहे हैं। यहां तक की देशव्यापी मोदी लहर में भी वे पार्टी की नैया पार लगाने में कामयाब रहे हैं। वर्ष 2017 में भी अपने बूते उन्होंने पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभायी थी। ऐसे में कहा जा रहा है कि हालिया घटनाक्रम से वे आहत हैं और कयास लगाये जा रहे हैं कि वे कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं। दरअसल पंजाब की राजनीति के हिसाब से यह बेहद संवेदनशील समय है और कैप्टन सरकार का कार्यकाल करीब छह माह ही रह गया है।

जाहिरा तौर पर हालिया बदलाव से कैप्टन ने खुद को आहत महसूस किया होगा। ऐसे में अकसर विवादों में रहने वाले नवजोत सिंह सिद्धू अध्यक्ष के रूप में निष्कंटक पारी खेल पायेंगे, कहना मुश्किल है। उन्हें सत्ता की पिच पर कैप्टन की नित नयी गुगली के लिये तैयार रहना होगा। वैसे भी राजनीति में कहने-सुनने और करने की हकीकत में कब साम्य नजर आया है। यह हर बार संभव नहीं कि युवा विकल्प अनुभवी विकल्प का पर्याय बन सके। कैप्टन ने पंजाब की राजनीति को गहरे तक जीया है। अनुभव के दांव का कोई विकल्प न जीवन में है और न ही राजनीति में।

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