सौ साला सफर
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस सप्ताह स्थापना के सौ साल पूरे होने का जश्न मनाया। निस्संदेह किसी राजनीतिक दल के लिये यह सुखद पल है और उसे उत्सव के साथ मनाया जाना तार्किक भी है। लेकिन इस दौरान चीन के शीर्ष नेता व राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने जिस तल्खी के साथ दुनिया को चेताया, वह शेष दुनिया के साथ सहज रिश्तों की गारंटी कतई नहीं देता।
उन्होंने चेताया था कि चीन को धौंस देने वाले 140 करोड़ लोगों की स्टील की दीवार से टकराकर टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे। यह जरूरी नहीं था कि पार्टी के शताब्दी समारोहों से ऐसा तल्ख संदेश जाये। दुनिया के विकास में भागीदारी और सद्भाव का संदेश देकर चीन अपने उस कलुष को धो देता, जो उसकी आपराधिक लापरवाही के चलते मानवता कोरोना संक्रमण के भयावह संकट के रूप में झेल रही है।
यह तथ्य किसी से छिपा भी नहीं है कि चीन ने शताब्दी समारोह मनाने से ठीक पहले हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों व मीडिया का दमन किया है। एक लोकप्रिय समाचारपत्र को बंद करा कर उसके संपादक मंडल को गिरफ्तार किया है। पूरी दुनिया ने देखा कि इन सौ सालों में चीनी राष्ट्रवाद ने विस्तारवाद का रूप ले लिया है।
भारत ने जिसका दंश झेला है और उसकी टीस हर भारतीय महसूस करता है। गलवान के शहीद उसकी याद दिलाते हैं। कहीं न कहीं चीन के निरंकुश साम्राज्यवाद के चलते उसके खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जो एकजुटता नजर आ रही है, उसी असुरक्षाबोध में चीनी राष्ट्रपति की तल्ख टिप्पणी सामने आई है।
बहरहाल, इन सौ सालों में चीन ने जो तरक्की है, वह दुनिया में अनूठी मिसाल है। चीन में किस तरह का समाजवाद है और वहां किस तरह के लोकतांत्रिक मूल्यों की आजादी है, यह बहस का विषय हो सकता है।
लेकिन यह सत्य है कि चीन दुनिया के नंबर दो वाली बड़ी अर्थव्यवस्था है और अमेरिकी वर्चस्व को कड़ी चुनौती दे रहा है। मानना पड़ेगा कि उसने विकास को शहरों की सीमाओं से दूर गांव तक पहुंचाया। उसने दुनिया की सबसे बड़ी पेंशन योजना को मूर्त रूप दिया।
गरीबी पर किसी हद तक काबू पाया और लोगों के जीवन स्तर में अप्रत्याशित सुधार किया। विज्ञान, तकनीक व अंतरिक्ष के क्षेत्र में शिखर की कामयाबी हासिल की। लेकिन किसी राष्ट्र की प्रगति छोटे देशों की संप्रभुता और स्वतंत्रता का अतिक्रमण की कीमत पर नहीं होनी चाहिए।
सवाल उठाया जा सकता है कि अधिकांश पड़ोसी देशों के साथ उसके सीमा विवाद क्यों हैं। चीन सागर में उसका निरंकुश व्यवहार अंतर्राष्ट्रीय मर्यादाओं का अतिक्रमण क्यों कर रहा है। उसकी आर्थिक तरक्की और सैन्य ताकत विस्तारवाद का पर्याय नहीं बननी चाहिए।
सौ सालों में सौ से कम लोगों से शुरू हुई कम्युनिस्ट पार्टी का आज 9.2 करोड़ सदस्यों वाली पार्टी बनना सुखद है, लेकिन पार्टी की यह ताकत साम्राज्यवाद का पोषण करने के बजाय विश्व शांति व तरक्की का वाहक बने तो यह दुनिया के हित में होगा। उसे अपने देश व विश्व में मानवाधिकारों का सम्मान करना भी सीखना होगा।