ऊपर उठ रहा हिमालय

मंगलवार की देर रात नेपाल, चीन और भारत में आए भूकंप के झटके अस्वाभाविक नहीं थे। इसका केंद्र नेपाल का मणिपुर था और भूगोल के हिसाब से इंडियन टेक्टोनिट प्लेट पूर्व से पश्चिम तक फैला है, जिसमें हमारा पूर्वोत्तर का इलाका, हिंदुकुश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान के कुछ भाग आदि आते हैं। यहां इंडियन प्लेट अपने से कहीं भारी यूरेशियन प्लेट के भीतर समा रही है या टकरा रही है, जिससे न सिर्फ हिमालय ऊपर की ओर उठ रहा है, बल्कि यह पूरा इलाका ही भूकंप के लिहाज से काफी संवेदनशील बन जाता है। फिलहाल 6.3 परिमाप का भूकंप आया है, पर पूर्व में इससे भी अधिक ‘मैग्निट्यूड’ के कंपन यहां आ चुके हैं। नेपाल का 1934 का भूकंप इसका दर्दनाक उदाहरण है।
हिमालय के आस-पास भूकंप का आना बेशक चौंकाने वाली बात न हो, लेकिन ऐसी प्राकृतिक परिघटना को गंभीरता से लेना चाहिए। चूंकि हिमालय का फैलाव काफी दूर तक है, इसलिए यहां हल्की सी भी उथल-पुथल हमें बड़ी चोट दे सकती है। इसकी प्रकृति को देखते हुए ही यहां आठ या इससे भी अधिक तीव्रता के भूकंप की आशंका जाहिर की जा चुकी है। अगर ऐसा होता है, तो नेपाल या सीमावर्ती इलाकों के अलावा दिल्ली या उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी तबाही मच सकती है। अगस्त 1988 में बिहार में आए भूकंप को हम अब तक कहां भूल सके हैं?

मुश्किल यह है कि भूकंप का पूर्वानुमान संभव नहीं। चंद हल्की थरथराहटों से बड़े भूकंप की आशंका भी नहीं जाहिर की जा सकती। हां, कुछ तकनीकी और व्यावहारिक उपाय जरूर किए जा सकते हैं। मसलन, एक बेहतर चेतावनी सिस्टम तैयार करना। दरअसल, भूकंप में दो तरह की लहरें पैदा होती हैं- एक ‘पी’ और दूसरी ‘एस’। दोनों में समयांतर होता है। ‘पी वेब’ अपनी प्रकृति के कारण नुकसान नहीं पहुंचाती, लेकिन ‘एस’ तुलनात्मक रूप से ज्यादा हानि करती है। जैसे ही दो टेक्टोनिक प्लेट्स आपस में टकराती हैं, तो पहले ‘पी’ लहर पैदा होती है।

मान लीजिए, यदि भूकंप का केंद्र नेपाल है, तो ‘पी वेब’ को दिल्ली तक पहंुचने में कुछ सेकंड का वक्त लगेगा। इसके बाद ही ‘एस वेब’ पैदा होगी, जो समान देरी से दिल्ली पहुंचेगी। अगर हमने ‘पी वेब’ को केंद्र पर ही नाप लिया और इसकी जानकारी तुरंत दिल्ली से साझा कर दी, तो ‘एस वेब’ की मारकता से बचने के लिए हमारे पास 30 से 50 सेकंड तक का वक्त होगा। इसमें मेट्रो, परमाणु केंद्र, आपात चिकित्सा जैसी अनिवार्य केंद्रों व सेवाओं के लिए बचाव-उपाय किए जा सकते हैं।

मैक्सिको जैसे देश ऐसे निगरानी तंत्र से ही अपना बचाव करते हैं। वहां भूकंप से बचने के लिए एजेंसियों को एक से डेढ़ मिनट का वक्त मिल जाता है। जाहिर है, एशिया में इस तरह का तंत्र बनाने के लिए हिमालय के आस-पास बसे सभी देशों को एक मंच पर आना होगा।

इसके साथ-साथ स्थानीय स्तर पर भी कई उपाय किए जा सकते हैं, जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। जैसे, घर को भूकंपरोधी बनाना। सच भी यही है कि भूकंप इंसान की जान नहीं लेता, इमारतें लेती हैं। अगर हम इमारतों को तैयार करने में आधुनिक व उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, तो बड़ी तीव्रता के भूकंप भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे।

मगर दिक्कत यह है कि अपने देश में ‘बिल्डिंग कोड’ होने के बावजूद शायद ही घर-निर्माण में इस पर ध्यान दिया जाता है। जाहिर है, कानून लागू करने वाली एजेंसियों की जिम्मेदारी तय करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि नई इमारतें पूरी तरह से बिल्डिंग कोड का पालन करें। भूकंप के लिहाज से भारत में चार जोन- 2, 3, 4 और 5 तय किए गए हैं।

इसमें जोन-5 काफी संवेदनशील है, तो जोन-2 अपेक्षाकृत कम। मकानों को तैयार करते वक्त इन पर भी गौर किया जाना चाहिए।
शहरों के अनियोजित विस्तार ने भी हमारी चिंताएं बढ़ाई हैं। दिल्ली में ही न जाने कितनी अवैध कॉलोनियां बस चुकी हैं। इनमें रहने वाली सघन आबादी निश्चय ही बारूद के ढेर पर है। चूंकि दिल्ली में 6.3 से भी अधिक तीव्रता का भूकंप आ चुका है और यह जोन-4 का हिस्सा है, इसलिए यह आशंका जताई जाती रही है कि बड़ा भूकंप यहां जान-माल का भारी नुकसान पहुंचा सकता है। सौभाग्य से, ऐसी नौबत अब तक नहीं आई है, लेकिन इस आशंका से पार पाने के उपायों पर हमारे नीति-नियंताओं को जरूर सोचना चाहिए। हम चाहें, तो ‘रेट्रोफिटिंग’ की तरफ ध्यान दे सकते हैं।

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