किसकी गलेगी दाल

दुनिया भर के राजनेताओं की तरह भारतीय राजनेता भी अपने वक्तव्य चुनावी नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर ही देते हैं। इस लिए जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नोटों पर लक्ष्मी गणेश के चित्र छापने की मांग की, तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। यह अलग बात है कि उन्होंने जो तर्क इस अनुरोध के पीछे दिए हैं, वे जरूर कौतूहल पैदा करने वाले हैं। सार्वजनिक जानकारी सही है, तो केजरीवाल आईआईटी से पढ़े हुए हैं, इसलिए जब वे कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को सुधारने का एक तरीका है कि भारतीय नोटों पर लक्ष्मी गणेश के चित्र छापे जाएं, तो स्वाभाविक रूप से हमें ब्रिटिश मतदाताओं पर तरस आता है, जिन्होंने बाजार की गिरावट थामने के लिए अपना प्रधानमंत्री ही बदल डाला। मेरे जैसे भोजपुरिया के मन में कसक है कि उन्हें दरिद्दर भगाने का हमारा शर्तिया इलाज नहीं याद आया अन्यथा तो वह रिजर्व बैंक को सलाह देते कि उनकी हर शाखा में दीवाली के मौके पर सूप जरूर पीटा जाए। शायद बिहार के अगले चुनाव में यह भी याद आ जाए।
धर्म को ध्यान में रखकर की जाने वाली राजनीति की एक सीमा यह है कि इसमें भाषा के स्तर पर निरंतर बदलाव की जरूरत पड़ती है। कुछ दशक पहले एक फिल्म आई थी शोले। उसमें हिंसा को एक खास मुकाम दिया गया था। तब तक बनी किसी भी बम्बइया फिल्म से बहुत क्रूर थी इसकी हिंसा। सिनेमा घरों में इसने धूम मचा दी और बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे, पर जब उसकी नकल पर और फिल्में बनीं, तो लगभग सभी पिट गईं। दर्शक अधिक की मांग कर रहे थे और निर्माता निर्देशकों की सांसें फूली जा रही थीं। कुछ ऐसा ही प्रयोग 1970 के दशक में पंजाब में हुआ। ज्ञानी जैल सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपने कार्यक्रमों को अरदास से शुरू करने का प्रयास किया और बुरी तरह से पिटे। पंथ के धार्मिक प्रतीकों का अकालियों द्वारा प्रयोग कांग्रेस के मुकाबले अधिक विश्वसनीय लगता था। एक बार इस दौड़ में शरीक होते ही जो प्रतिस्पर्धा शुरू होती है, उसमें दौड़ना सबके बस का नहीं है। मुद्रा पर लक्ष्मी गणेश के चित्रों की मांग भी प्रतिस्पर्धी और बड़ी हिंदू छवि निर्मित करने का प्रयास अधिक प्रतीत होती है। इस मामले में आम आदमी पार्टी पहले से ही बहुत सतर्क व्यवहार करती रही है। शाहीन बाग जैसे आंदोलन में भी पार्टी खुलकर किसी पक्ष में नहीं दिखी थी। दिल्ली के उत्तर पूर्व जिले में सांप्रदायिक दंगों के दौरान पार्टी का वीतराग भी इसी रणनीति का हिस्सा था। अनेक लोगों को शिकायत है कि पीड़ितों को राहत पहुंचाने की दिशा में ज्यादा प्रभावी हस्तक्षेप नहीं किया गया। देश के भिन्न हिस्सों में पार्टी की कई सभाओं में जयश्री राम के नारे भी लगाए गए हैं और यह भी भुला दिया गया कि इसका कॉपीराइट तो किसी अन्य के पास है। शायद यह भुला दिया गया है कि कांग्रेस इसी चक्कर में अपना दामन जला चुकी है। उसने एक बार अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत अयोध्या से की थी और एक चुनाव के मौके पर बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने में मदद की थी, दोनों बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। दोनों बार भाजपा ज्यादा बड़ी हिंदू साबित हुई। आज तक कांग्रेस उस धक्के से उबरी नहीं है और उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे बड़े राज्यों से तो उसका पूरा जनाधार ही इसी चक्कर में खिसक गया। न खुदा ही मिला, न विसाले सनम। राहुल या प्रियंका की चुनावी मौकों पर मंदिरों में शीश नवाती, गंगा स्नान करती या जनेऊ  धारण की हुई छवि बहुत विश्वसनीय नहीं बन पाती है। इसीलिए हिंदुत्व के पाले में घुसकर भाजपा को ललकारने पर हमेशा हार की आशंका बनी रहती है। अनुभव तो यही कहता है।

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