दावे की जंग

शिव सेना की विरासत की जंग को भले फौरी तौर पर सुलझाया गया है, लेकिन असली राजनीतिक लड़ाई अभी शेष है। निर्वाचन आयोग ने उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे, दोनों गुटों को अलग-अलग नाम और चुनाव चिह्न आवंटित कर दिए हैं। दोनों ने अपनी-अपनी पार्टी के नाम में शिव सेना को भी शामिल किया है और बाला साहेब भी। जैसे, उद्धव ठाकरे के गुट का नाम शिव सेना उद्धव बाला साहेब ठाकरे है, तो एकनाथ शिंदे की पार्टी का बालासाहेबंची शिव सेना। हालांकि, शिव सेना का मूल चुनाव चिह्न (धनुष-बाण) किसी गुट को नहीं मिला है। उद्धव ठाकरे के पास ‘जलती मशाल’ है, तो एकनाथ शिंदे के पास ‘दो तलवार और एक ढाल’। उल्लेखनीय यह है कि दोनों गुटों को मिले चिह्न भी खास हैं। दरअसल, इतिहास बताता है कि दोनों चिह्न शिव सेना की राजनीतिक यात्रा में शामिल रहे हैं। 1968 के बृह्नमुंबई महानगरपालिका चुनाव (बीएमसी) में पार्टी के कुछ उम्मीदवारों ने ढाल और दो तलवार के चिह्न पर चुनाव लड़ा था, तो 1990 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में, जब शिव सेना का एकमात्र विधायक चुना गया था, उसे वह जीत मशाल के चुनाव चिह्न पर मिली थी।
देखा जाए, तो यह बड़ी लड़ाई थी भी नहीं। विरासत का असली फैसला राजनीतिक रूप से ही निकलेगा। लिहाजा, आने वाले दो-तीन वर्षों में, जब स्थानीय राजनीति परवान चढ़ेगी, तब यह पता चल सकेगा कि बाला साहेब ठाकरे की राजनीतिक विरासत आखिर किस गुट को मिली है। बहुत संभव है कि दोनों में से कोई एक पार्टी बचे। यानी, एक गुट मजबूती से आगे बढ़ेगा, तो दूसरा कमजोर होकर निढाल पड़ जाएगा। इन सबमें यह भी देखना होगा कि आखिर में राज ठाकरे किस गुट के साथ खडे़ होते हैं और किस तरह से वह आने वाली राजनीति को प्रभावित कर पाते हैं?

उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे, दोनों इस सच से वाकिफ हैं। संभवत: इसीलिए, दोनों नेताओं ने दशहरा के दिन अलग-अलग रैलियां कीं और एक-दूसरे पर शब्दों से तीखे प्रहार किए। उद्धव के पास विशेषकर मुंबई के संगठन के लोग हैं, तो शिंदे की ताकत महाराष्ट्र के अन्य जिलों के कार्यकर्ता हैं। निर्वाचन आयोग ने अब अपना फैसला दे दिया है, लेकिन शिव सेना की असली विरासत का फैसला तो अगले वर्ष होने वाले बीएमसी चुनावों से ही होगा।
बीएमसी पर पिछले करीब दो दशकों से शिव सेना का राज है। देश की इस सबसे अधिक साधन-संपन्न महानगरपालिका के आस-पास ही उसकी राजनीति घूमती रही है। मगर पिछले चुनाव में भाजपा व शिव सेना ने अलग-अलग चुनाव लड़े और दोनों के बीच सीटों का अंतर महज दो रहा। उस चुनाव में शिव सेना को जहां 84 सीटें मिली थीं, तो भाजपा ने 82 सीटों पर कब्जा किया था। यह संकेत है कि मुंबई में शिव सेना के पास जो ताकत होती थी, उसमें सेंध लग चुकी है। ऐसे में, अगर शिंदे गुट और भाजपा ने मिलकर इस बार बीएमसी में बाजी मार ली, तो उद्धव ठाकरे की सियासी राह काफी मुश्किल हो सकती है।

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