आलाकमान की हनक

आलाकमान के खिलाफ बगावत, आलाकमान की चेतावनी, आलाकमान नाराज…। कुल मिलाकर आलाकमान शब्द पिछले कई दिनों से सुर्खियों में है। आलाकमान शब्द अंग्रेजी के हाई कमांड का पत्रकारिता की भाषा में किया गया अनुवाद है। हाई कमांड का मतलब सेना के सर्वोच्च अधिकारी से है, मतलब जो थल, वायु और नौसेना का कमांडिग अफसर हो।

आला मतलब सबसे अच्छा और कमान यानी धनुष, तो क्या कहा जा सकता है कि आलाकमान वह होता है, जो सबसे अच्छा धनुर्धर हो और जिसके तरकश में ऐसे-ऐसे तीर हों कि दुश्मनों के साथ-साथ जरूरत पड़ने पर दोस्तों के भी दिल छलनी किए जा सकें या अपना मतलब साधा जा सके या अपने कहे अनुसार चलने-करने को मजबूर किया जा सके?

मतलब, आलाकमान ऐसा कोई शख्स या संगठन या व्यक्तियों का समूह होता है, जिससे उसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाले डरते हैं, जो ठसक के साथ फैसले करता है; जिसका रौब, इकबाल, खौफ होता है; जिसकी हनक होती है। अब ऐसे शख्स या संगठन से जब सब डरते हैं, तो फिर राजस्थान के विधायकों में इतनी हिम्मत कहां से आ गई कि वे सीधे-सीधे आलाकमान से भिड़ गए? वैसे हनक आलाकमान की भी बची रहे और राज्य के क्षत्रपों का सम्मान भी बना रहे, लगता है, इसका बेहतरीन उदाहरण सोनिया गांधी और अशोक गहलोत ने पेश करने की कोशिश की है।

माफी मांगकर और शर्मिंदगी व्यक्त करके अशोक गहलोत ने आलाकमान की नाराजगी भी शायद दूर कर दी है और अपना मुख्यमंत्री पद भी फिलहाल सुरक्षित कर लिया है। इससे यह भी साफ हो गया है कि अगर आलाकमान के पास केंद्रीय सत्ता नहीं है, तो राज्यों पर बहुत ज्यादा दबाव डालने के बजाय बीच का रास्ता निकालना ही सही राजनीति है।

अब आलाकमान के तरफदार दावा कर सकते हैं कि गहलोत को झुका दिया गया, तो वहीं दूसरी ओर, गहलोत खेमा भी यह कह सकता है कि मकसद हासिल हो गया। मकसद शायद यही था कि गहलोत मुख्यमंत्री बने रहें और सचिन पायलट थोड़ा इंतजार कर लें। अब आलाकमान के लिए जरूरी हो जाता है कि पायलट के लिए दिल्ली में कोई जगह तलाशे। इससे राजस्थान में कांग्रेस की कलह को वह पूरी तरह रोक सकेगा।


सियासत की नजर से देखा जाए, तो पहले सिर्फ कांग्रेस के लिए ‘हाईकमान कल्चर’ का इस्तेमाल होता था। अब सभी दलों का अपना-अपना हाईकमान है। कांग्रेस का हाईकमान अगर नेहरू-गांधी परिवार है, तो भाजपा का संघ परिवार। हालांकि, अब भाजपा में हाईकमान नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ही मानी जाती है।

तृणमूल कांग्रेस की हाईकमान ममता बनर्जी हैं, तो बसपा की मायावती, बीजद के नवीन पटनायक। दक्षिण में तो द्रमुक से लेकर टीआरएस व वाईएसआर कांग्रेस तक, हर दल में एक मजबूत हाईकमान है। यहां तक कि एक वामपंथी पार्टी के आलाकमान मतलब पोलित ब्यूरो ने ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं पर पानी फेर दिया था। 


बहरहाल, इन दिनों सबसे बड़ी मुसीबत से कांग्रेस हाईकमान गुजर रहा है। कहा जा रहा है, राजस्थान की घटना से एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि कांग्रेस हाईकमान कमजोर पड़ गया है, लेकिन ध्यान रहे, इसी हाईकमान के कहने पर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने गद्दी छोड़ी थी।

इसी हाईकमान के कारण छत्तीसगढ़ में टी एस सिंहदेव मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ इक्का-दुक्का बयानों के अलावा कुछ नहीं बोल पाते हैं। कर्नाटक में शिव कुमार और सिद्धारमैया एक-दूसरे की परदे के पीछे आलोचना तो करते हैं, लेकिन आलाकमान का डर उन्हें तलवार म्यान से निकालने नहीं देता। गुलाम नबी आजाद भी आलाकमान का कुछ बिगाड़ नहीं पाए और मजबूरी में मैदान ही छोड़ गए। सवाल उठता है कि ऐसे में, राजस्थान के 90 विधायकों में इतनी हिम्मत कहां से आ गई? आलाकमान को आला संकट में क्यों डाल दिया? 


साफ है कि आलाकमान आला दर्जे का तभी होता है, जब केंद्र में उसकी सत्ता होती है। जब तक वह चुनाव जितवाता है, जब तक वह वोट दिलाने की क्षमता रखता है, जब तक वह चुनाव का खर्च उठाने का बीड़ा उठाता है, तब तक ही ठसक होती है। अगर हाईकमान चुनाव नहीं जितवा सकता, तो फिर उसकी उपयोगिता भी कम हो जाती है। दुधारू गाय की लात भली, तो क्या हाईकमान का सबसे बड़ा सबक यही है। अगर आपके पास केंद्रीय सत्ता नहीं है, तो आपको राज्यों की सत्ता पर निर्भर रहना पड़ेगा और सियासी लात-घूंसे चलाने बंद कर देने चाहिए। 


अब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को हिमाचल प्रदेश और अशोक गहलोत को गुजरात चुनावों का मुख्य पर्यवेक्षक किस वजह से बताया गया, इसे बताने की जरूरत नहीं है। भारतीय राजनीति में अक्सर यह आग्रह किया जाता है कि स्थानीय क्षत्रपों को भले ही आप सिर पर मत चढ़ाइए, लेकिन उन्हें अपनी अंगुलियों पर भी मत नचाइए।

जो आला नेता अपने दल में आंतरिक लोकतंत्र की उम्मीद करते हैं, उन्हें पार्टी विधायकों से एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित करने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। अपने नेताओं को बार-बार दिल्ली या अपने राज्य की राजधानी बुलाने में समय क्यों बर्बाद किया जाए? यह बीमारी सभी दलों में है।

होना तो यह चाहिए कि विधायक अपने नेता का चुनाव करें और आलाकमान इसकी घोषणा करे। आर के लक्ष्मण का एक कार्टून याद आता है- एयरपोर्ट पर विधायक पंक्ति में खडे़ हैं, इंदिरा गांधी आगे से गुजर रही हैं, एक विधायक के सामने रुकती हैं, कहती हैं कि आप नए मुख्यमंत्री होंगे, आपका नाम क्या है? तमाम मौजूदा आलाकमानों को समझ जाना चाहिए कि तब से लेकर अब तक बहुत पानी बह चुका है। कोई मुख्यमंत्री या नेता छोटे-छोटे फैसलों के लिए बार-बार आलाकमान के पास क्यों जाए? बड़े झगड़े होने पर ही आलाकमान का निर्णय अंतिम होना चाहिए। 


हकीकत यह है कि कुछ नेता अपनी पूरी जिंदगी आलाकमान की जी-हुजूरी में काट देते हैं- बना है साहब का मुसाहिब फिरे है इतराता, वरना इस शहर में गालिब की आबरू क्या है, जबकि नेताओं की अपनी जमीन होगी, तो बड़े शान से वे कह सकेंगे, दाग इतराए फिरते हैं आज, शायद उनकी आबरू होने लगी।

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