तैयार नहीं बंगाल
पश्चिम बंगाल में मंगलवार को भाजपा के राज्य सचिवालय नबान्न अभियान के दौरान जो दुखद हिंसा हुई, उस पर कोई हैरत नहीं होनी चाहिए। इस राज्य में सियासी वर्चस्व के लिए हिंसा की लंबी परंपरा रही है। ऐसे में, बीते साल विधानसभा चुनाव में मुंह की खाने वाली भाजपा ने भी सुर्खिर्यों में आने के लिए वही सब किया, जो इससे पहले कांग्रेस, सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस करती रही है। ध्यान रहे, सचिवालय अभियान के दौरान हिंसा की सबसे बड़ी घटना 21 जुलाई, 1993 को तत्कालीन युवा कांग्रेस नेता ममता बनर्जी के नेतृत्व में ही हुई थी। तब इस अभियान के दौरान 13 बेकसूर नौजवानों को पुलिस की गोलियों का शिकार बनना पड़ा था। उसके बाद कांग्रेस से नाता तोड़ने के बावजूद ममता हर साल उस दिन शहीद दिवस मनाती रही हैं। उस दुखद घटना ने ममता की भावी राजनीति की राह साफ करने और करीब 18 साल बाद उनके सत्ता के शिखर पर पहुंचने की नींव डाली थी, इसलिए साल भर से दलबदल और आंतरिक गुटबाजी के कारण राजनीतिक हाशिये पर पहुंच रही भाजपा ने भी अगले साल होने वाले पंचायत चुनाव से पहले इसी राह पर चलने का फैसला किया। हालांकि, इस अभियान के दौरान भी उसकी गुटबाजी खुलकर सतह पर आ गई।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सचिवालय अभियान के दौरान हुई हिंसा कोई अप्रत्याशित नहीं थी। यह सब एक सुनियोजित योजना के तहत किया गया। फिलहाल पहले चरण में भाजपा सुर्खियां बटोरने के अपने प्राथमिक मकसद में कामयाब रही है। यही नहीं, चोरी और सीनाजोरी की तर्ज पर उसने पुलिस वालों पर हिंसा का आरोप लगाते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट में भी गुहार लगाई है। इस पर अदालत की एक खंडपीठ ने 19 सितंबर तक गृह सचिव से जवाब भी मांगा है।
सचिवालय अभियान के दौरान भाजपा के कार्यकर्ता जगह-जगह पुलिस वालों से भिड़े, उन पर पथराव किया और पुलिस की एक गाड़ी में आग भी लगा दी। उधर, पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े, लाठियां भांजी और प्रदर्शनकारियों पर पानी की बौछार भी की। अब दोनों पक्ष अपने-अपने दावे करने में जुटे हैं। भाजपा का दावा है कि उसके करीब साढ़े तीन सौ कार्यकर्ता पुलिस की पिटाई में घायल हो गए हैं, जिनमें से कई की हालत गंभीर है। इस संघर्ष के दौरान पुलिस के भी कई जवान और अफसर घायल हो गए हैं।
आखिर इस अभियान का मकसद क्या था? इसका मकसद राज्य में कथित रूप से बढ़ते भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के खिलाफ प्रदर्शन करना था, तो आखिर यह भीड़ हिंसक क्यों हो उठी? भाजपा की दलील है कि पुलिस ने शांतिपूर्ण तरीके से रैली निकाल रहे नेताओं और कार्यकर्ताओं पर बिना किसी उकसावे के हमला किया। उसके बाद कार्यकर्ताओं ने अपने बचाव में हमले किए, लेकिन पुलिस व सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि भाजपा ने बंगाल की राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए सुनियोजित तरीके से हिंसा की और पुलिस वालों पर हमले किए। पुलिस को बचाव में लाठी और आंसू गैस का सहारा लेना पड़ा।
ऐसे टकरावों में आरोप-प्रत्यारोप तो लगते ही हैं। हर कोई अपनी कमीज दूसरे से सफेद होने के दावे करता रहा है। इस कार्यक्रम से पहले राजनीतिक हलकों में इसके हिंसक होने का अंदेशा जताया जा रहा था। इसे ध्यान में रखते हुए ही सचिवालय की ओर जाने वाली तमाम सड़कों को पुलिस छावनी में बदल दिया गया था। नतीजतन पार्टी का कोई भी नेता या कार्यकर्ता सचिवालय के आसपास नहीं फटक सका। उसके बाद ही हिंसा शुरू हो गई।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पुलिस के भारी इंतजाम के कारण भाजपा का सचिवालय अभियान जब नाकाम होने लगा, तो पार्टी कार्यकर्ता हिंसा पर उतारू हो गए। इसके अलावा प्रदेश के नेताओं में केंद्र्रीय नेतृत्व के खिलाफ नाराजगी थी। इसकी वजह यह आम धारणा थी कि बीते साल की चुनावी पराजय के बाद केंद्रीय नेताओं ने प्रदेश में पार्टी को उसके हाल पर छोड़ दिया है, लेकिन इसी मई महीने में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के दौरे और उसके बाद पार्टी महासचिव सुनील बंसल को बंगाल का प्रभारी बनाने के बाद स्थानीय नेता और कार्यकर्ताओं में एक नया जोश पैदा हुआ है।
राज्य में अगले साल पंचायत चुनाव होने वाले हैं और बंगाल में सत्ता का रास्ता ग्रामीण इलाकों से होकर ही निकलता है। ध्यान रहे, साल 2018 में हुए पंचायत चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी, अब क्या होगा? हिंसा रोकने में ममता बनर्जी कामयाब नहीं हो पा रही हैं, हालांकि, उनसे लोगों को उम्मीद बहुत है।
लोग भूले नहीं हैं, 21 जुलाई, 1993 को ममता बनर्जी के युवा कांग्रेस अध्यक्ष रहते राज्य सचिवालय राइटर्स बिल्डिंग अभियान के दौरान पुलिस की गोली से 13 युवक मारे गए थे। उस अभियान के दौरान खुद ममता को चोटें आई थीं। तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद भी ममता हर साल बिना नागा उस दिन को शहीद दिवस के तौर पर मनाती रही हैं। ममता बनर्जी वर्ष 1970 में कांग्रेस में शामिल हुई थीं और महज पांच साल बाद वर्ष 1975 में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान वह लोकनायक जय प्रकाश नारायण की कार के बोनट पर चढ़ गई थीं। बंगाल में ऐसी राजनीतिक नाटकीयता का सिलसिला रहा है। इस सिलसिले को बढ़ाने में तृणमूल और भाजपा का इन दिनों ज्यादा योगदान है। दूसरी ओर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा बंगाल से होकर नहीं गुजरेगी। इसका संदेश साफ है, कांग्रेस ने ममता को भाजपा से निपटने के लिए छोड़ दिया है। इससे बंगाल में जमीनी समीकरण बदल गया है।
वर्ष 1998 में टीएमसी के गठन के बाद बंगाल में राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया था। उस साल हुए पंचायत चुनाव के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई थी, उसके बाद राज्य के विभिन्न इलाकों में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता की वजह से भी हिंसा बढ़ी थी। उस दौरान ममता बनर्जी जिस स्थिति में थीं, अब उस स्थिति में भाजपा है। नतीजतन टकराव लगातार तेज हो रहा है। आने वाले दिनों में इसके और तेज होने का अंदेशा जताया जा रहा है।