नतमस्तक राजनीति

शायद यह पिछले कुछ दशक का सबसे असहिष्णु दौर है। इसलिए जब फिल्म अभिनेता रणबीर कपूर और अभिनेत्री आलिया भट्ट को उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर से बिना दर्शन किए उलटे पांव लौटना पड़ा, तो कहीं किसी को भी कोई हैरत नहीं हुई। उनके वहां पहुंचने से पहले ही कुछ संगठनों के कार्यकर्ता वहां उनके विरोध के लिए मौजूद थे और अगर बयानों पर यकीन किया जाए, तो वे किसी भी तरह इस फिल्मी दंपति को ज्योतिर्लिंग परिसर न जाने देने की जिद पर अड़े हुए थे। इन दिनों इस तरह के विरोध कोई नई बात नहीं रह गए हैं। शायद वहां ऐसा विरोध न होता, तो लोगों को ज्यादा आश्चर्य होता।
रणबीर और आलिया की नई फिल्म ब्रह्मास्त्र पिछले दिनों रिलीज हुई है। इन दिनों फिल्म कारोबार में यह चलन है कि किसी भी फिल्म के सिनेमा हॉल में पहंुचने से पहले उसकी पूरी टीम किसी बड़े तीर्थस्थल पर माथा टेकने पहंुच जाती है। कुछ महाकालेश्वर जाते हैं, कुछ अजमेर शरीफ, तो कुछ अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में हाजिरी लगाते हैं। फॉर्मूला फिल्म बनाने वालों ने अपने लिए भी कुछ फॉर्मूले ईजाद कर लिए हैं। यह कहना मुश्किल है कि इसमें कितनी धार्मिक आस्था होती है और कितना प्रचार का स्टंट, लेकिन इससे मीडिया में पर्याप्त कवरेज जरूर मिल जाता है। इन दिनों यह सब शायद एक और वजह से भी जरूरी हो गया है। फिल्मों को सफल व असफल बनाने और उनका बहिष्कार करने की शक्तियां देश की राजनीति में जिस तरह से सक्रिय हुई हैं, उसमें बहुत कुछ अब भगवान भरोसे हो गया है। चुनिंदा फिल्मों और फिल्मी दुनिया के कुछ लोगों के विरोध की ताकतें पिछले लगभग एक दशक से जिस तरह से सक्रिय हुई हैं, उतनी इस देश में पहले कभी नहीं थीं।

कुछ संगठन और लोग अब यह तय करने लगे हैं कि देश कौन सी फिल्में देखे? उन फिल्मों में क्या हो? उनमें पात्रों के क्या नाम हों? और फिर, सुनहरे परदे पर इन पात्रों को जीने वाले अपनी निजी जिंदगी में कैसा बर्ताव करें? वे क्या बोलें और किस मसले पर चुप्पी धारण कर लें? इन निर्देशों को न मानने वालों की लानत-मलामत और उन्हें सार्वजनिक तौर पर शर्मिंदा करने के भी पर्याप्त राजनीतिक इंतजाम कर लिए गए हैं। मौका मिलते ही उन पर टूट पड़ने के लिए सबके दशकों पुराने बयानों और कारनामों की फाइल तैयार कर ली गई है। सेंसर बोर्ड अपनी जगह है, लेकिन समाज को उसके ऊपर एक उद्दंड सुपर सेंसर बोर्ड मिल चुका है।
बात सिर्फ फिल्मों की नहीं है। लोग क्या खाएं, क्या पिएं और क्या पहने, इसके फतवे भी जारी होने लगे हैं। स्कूल, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में क्या पढ़ाया जाए, यह भी यही लोग तय कर रहे हैं और इन संस्थानों के ड्रेस कोड भी। शिक्षा नीति में इस दखल के बाद मुमकिन है कि देश की विदेश नीति भी यही लोग तय करने लग जाएं। लोकतंत्र संस्थाओं की जिस स्वायत्तता और लोगों को मिलने वाली जिस अभिव्यक्ति की आजादी की वजह से जाना जाता है, उसे ठेंगे पर रख दिया गया है।

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