कौन करे उपचार

मेरी समझ में यह नहीं आता कि निर्वाचन व्यवस्था का हमेशा के लिए केंद्रीकरण क्यों हो? …मैं अब इस संबंध में अपने विचार व्यक्त करूंगा कि संविधान के मसौदे में मूल अनुच्छेद 289 किस प्रकार था और संशोधन संख्या 99 द्वारा उसके स्थान पर जो नवीन अनुच्छेद प्रविष्ट होगा, वह किस प्रकार है…। पहले 4 जुलाई, 1947 को संघीय संविधान समिति का प्रतिवेदन उपस्थित किया गया था। उसके पृष्ठ 55 पर लिखा था : इस संविधान के अधीन होने वाले सभी चुनावों का अधीक्षण, निदेशन व नियंत्रण, चाहे वे संघीय निर्वाचन हों या प्रांतीय, जिसके अंतर्गत इन निर्वाचनों से उद्धृत या संयुक्त संदेहों और विवादों के निर्णय के लिए निर्वाचन -न्यायाधिकरण की नियुक्ति भी है, एक आयोग में निहित होगा, जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा।

…किंतु क्या यह आवश्यक है कि चाहे जितनी भी असुविधाएं हों, एक ही केंद्रीय आयोग स्थापित किया जाए? …केवल एक केंद्रीय आयोग की व्यवस्था की गई है और प्रादेशिक आयुक्तों को उस आयोग की सहायता करनी है। क्या यह उचित है कि भारत के एक कोने में स्थापित किसी आयोग को यह काम सौंपा जाए और प्रादेशिक आयुक्त उस आयोग की केवल सहायता ही करें? …मई 1949 के मध्य में हमें एक विवरण दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि 29 जुलाई, 1947 को जो निर्णय किया गया था, उसे किन कारणों से बदला गया है। …पहला कारण यह बताया गया कि इस विषय पर सावधानी से विचार करने की जरूरत है, और कुछ समाचार पत्रों में संकेत किया गया कि कुछ प्रांतों में सरकार अपने ही समर्थकों को पंजीबद्ध कराने में सहायता कर रही है, यह डॉक्टर आंबेडकर ने भी कहा था। …इस सभा का प्रत्येक सदस्य ऐसी कार्यवाहियों की निंदा ही करेगा, जिनसे संविधान द्वारा लोगों को प्रदत्त मताधिकार का अपहरण होता हो, किंतु इसका उपचार क्या है? यथोचित उपचार तो यही है कि जो लोग इस प्रकार के कार्यों को करें, उनके विरुद्ध कार्र्रवाई की जाए। केंद्र सरकार को ऐसे कार्यों की रोकथाम के लिए पूर्ण शक्ति तथा प्राधिकार प्राप्त है। यह जनतंत्र के हित में है। …डॉक्टर आंबेडकर को इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त है कि प्रांतों में क्या हो रहा है? …उन लोगों के विरुद्ध कार्रवाई की जाए, जो …लोकतंत्र की उपेक्षा करते हैं।
दूसरा कारण यह बताया गया कि प्रांतीय विधान सभाओं के उप-चुनावों के संबंध में हारने वाले पक्षों ने यह आरोप लगाया है कि प्रांतीय सरकारें अपनी स्थिति से अनुचित लाभ उठाती हैं। यह एक बुरी बात है, किंतु यह मेरी समझ में नहीं आता कि केवल प्रक्रिया में परिवर्तन करने से इस दोष का परिहार किस प्रकार होगा? यदि किसी सरकार में ऐसे लोग हैं, जो ऐसे कार्य करते हैं, तो वे किसी भी लोकतांत्रिक सरकार में रहने योग्य नहीं हैं। 
…यदि राष्ट्रपति केंद्र के लिए एक आयोग स्थापित कर सकता है, तो वह विभिन्न प्रांतों के लिए निर्वाचन आयुक्तों को भी क्यों नियुक्त नहीं कर सकता? हम हमेशा प्रांतीय चुनावों में हस्तक्षेप करके लोकतंत्र के मार्ग में बाधा क्यों डालें? मेरा यह निवेदन है कि इसका यह अर्थ है कि हम केंद्र और प्रांतों के बीच मतभेद उत्पन्न होने के लिए अधिक अवसर दे रहे हैं। क्या इसकी आवश्यकता है? यदि आपका यह विचार हो कि राज्यपाल पर प्रांतीय सरकार का प्रभाव पड़ सकता है और उस पर आपका विश्वास न हो, तो चुनावों के लिए राष्ट्रपति ही प्रांतीय आयुक्तों और प्रादेशिक आयुक्तों को नियुक्त करे। आप यह क्यों मान लेते हैं कि प्रांतों में प्रशासन दोषरहित न होगा और लोकतंत्र की प्रथाओं का अनुसरण न किया जाएगा? यह उचित नहीं है। मेरे विचार से इस प्रकार के उपबंध का अर्थ यही है कि हम संघीय प्रणाली के सिद्धांतों का परित्याग कर रहे हैं। मनोनीत राज्यपालों पर भी हमें विश्वास नहीं है।  …इसलिए यह मेरी समझ में नहीं आता कि इन दो निर्वाचनों में विभेद क्यों किया गया है? इससे केवल विरोध की भावना जागृत होगी, जिसे किसी प्रकार भी हितकर नहीं कहा जा सकता है। …केंद्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाने का क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि केंद्रीय सरकार इतनी शक्तिशाली हो कि प्रांतों की उन शक्तियों का भी अपहरण हो जाए, जो उन्हें प्राप्त होनी चाहिए? आजकल प्रथा चल पड़ी है कि यदि कोई व्यक्ति प्रांतों की चर्चा करता है, तो वह चर्चा राष्ट्र विरोधी कही जाती है। यह बहुत गलत बात है।

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