भाजपा और कांग्रेस

साल 1967 में जाने-माने राजनीतिक विज्ञानी डब्ल्यू एच मॉरिस जोन्स भोपाल के कांग्रेस दफ्तर में यह शोध करने के लिए पहुंचे  थे कि पार्टी आखिर इस कदर कैसे लोगों से जुड़ी हुई है? वहां काम में तल्लीन एक कर्मठ कार्यकर्ता ने कोई जवाब देने से इनकार करते हुए कहा कि वह काफी ‘व्यस्त’ हैं। जब मॉरिस जोन्स अपने सवाल पर अड़े रहे, तब उसने कहा, ‘मैं पार्टी के लिए काम करता हूं और इसमें कोई भी दखल नहीं दे सकता।’ मॉरिस जोन्स ने बाद में लिखा कि इस मुलाकात ने उनकी ‘आंखें’ खोल दीं। वह लिखते हैं, ‘धूल धूसरित कांग्रेस ऑफिस में उनके (उस कार्यकर्ता के) जैसे कई कार्यकर्ता हैं, जो एक खास मकसद के लिए समर्पित हैं। पार्टी के ऐसे कार्यकर्ता महात्मा गांधी के उस आह्वान को जी रहे हैं, जिसमें उन्होंने सेवा करने की बात कही है।’

आज, ऐसे समर्पित कार्यकर्ता भारतीय जनता पार्टी के दफ्तरों मेंं देखे जा सकते हैं। उसकी तुलना में कांग्रेस में ऐसे कर्मठ सदस्यों को ढूंढ़ना अब ज्यादा कठिन है। स्थिति यह है कि अगले महीने कांग्रेस पार्टी अपना नया अध्यक्ष चुनने जा रही है, पर कुछ असंतुष्ट नेताओं का विद्रोह और उनकी यह मांग सुर्खियों में है कि मतदाता सूची सार्वजनिक की जानी चाहिए। हालांकि, इन खबरों पर ध्यान न दें, तब भी 2014 के बाद नरेंद्र मोदी की नई भाजपा और नेहरू-गांधी परिवार की कांग्रेस में काडर-निर्माण और पार्टी ढांचे में काफी ज्यादा अंतर है। और ये ऐसे अंतर हैं, जिन पर कांग्रेस के अगले अध्यक्ष को संजीदगी से ध्यान देना चाहिए।
आजादी से पूर्व महात्मा गांधी, वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू ने जिला-दर-जिला एक मजबूत जमीनी ढांचे के साथ कांग्रेस को खड़ा किया था। जमीनी कार्यकर्ताओं का यह साथ कांग्रेस को तब भी मिला, जब साल 1969 में पार्टी में टूट हुई और के कामराज व मोरारजी देसाई जैसे मजबूत क्षत्रपों के बजाय जड़हीन नेतृत्व को तवज्जो देना शुरू किया गया। यहां तक कि 1990 के दशक में हिंदुत्व के उभार और मंडल पार्टियों के जन्म के वक्त भी प्रतिबद्ध कार्यकर्ता कांग्रेस में देखे जाते रहे, पर पिछले दो दशकों में जिला स्तरीय यह ढांचा कमोबेश खत्म हो गया है।
साल 2009 के आम चुनाव में 170 सीटों पर भाजपा उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा पाए थे, जबकि 71 सीटों पर कांग्रेस को यह गति देखनी पड़ी थी। मगर 2019 में सिर्फ 51 सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई, जबकि 148 सीटों पर कांग्रेसी प्रत्याशियों की। इसका अर्थ है कि महज एक दशक में देश के संसदीय मानचित्र के करीब एक तिहाई हिस्से में कांग्रेस चुनावी रूप से अप्रासंगिक हो गई थी। इसी तरह, 2014 और 2019 के बीच मोदी के नेतृत्व में भाजपा पांच गुना बढ़कर 17.4 करोड़ कार्यकर्ताओं वाली पार्टी बन गई, जो संख्या-बल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से करीब दोगुनी थी। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अपने अंदरूनी ढांचे में जो बदलाव किए, वे इस सोच से प्रेरित थे कि चुनाव तभी जीते जा सकते हैं, जब वोटिंग बूथ पर जीत मिलेगी। भारत में 10,35,000 मतदान केंद्र हैं। भाजपा का दावा है कि 2014 और 2019 के बीच उसने इनमें से 83 फीसदी बूथों पर समितियां गठित की हैं। यह न सिर्फ उसे जमीन पर मजबूत बनाता है, बल्कि उन समर्थकों को भाजपा के पक्ष में वोट देने के लिए उत्साहित करता है, जो किसी कारणवश उलझन में रहते हैं। 
भाजपा ने प्रबंधन के मोर्चे पर मोबाइल फोन नंबर, वन-टाइम पासवर्ड और वाट्सएप के साथ नई तकनीक अपनाकर भी अहम बदलाव किए। कांग्रेस ने भी 1 नवंबर, 2021 से अपने डिजिटल सदस्यता अभियान की शुरुआत की, जिसके जरिये 2.6 करोड़ सदस्यों को जोड़ने का दावा किया गया। काडर प्रबंधन के लिए उसने 2019 के चुनाव से पहले ‘शक्ति’ एप का भी उपयोग किया, पर उसका यह प्रयोग विफल साबित हुआ। दरअसल, तकनीक अपने दम पर अकेले कुछ नहीं कर सकती। भाजपा के लिए तकनीक इसलिए सहायक साबित हुई, क्योंकि जमीनी स्तर पर पार्टी ने खुद को नए सिरे से तैयार किया और निगरानी तंत्र भी विकसित किए हैं।
भाजपा इसलिए भी बढ़ रही है, क्योंकि सत्ता ने उसे मध्य भारत में सक्रिय व जनाकांक्षा की पार्टी बना दिया है। जब उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, जो कभी लोकसभा में बसपा के उप-नेता थे, 2017 में भाजपा में शामिल हुए, तब एक पत्रकार से उन्होंने कहा, ‘एक नेता का औसत करियर 20 साल का होता है। इससे ज्यादा तभी हो सकता है, जब आप किसी राजनीतिक परिवार से आते हैं। तब यह 30 साल तक हो सकता है। मैंने 10 साल बसपा को दिया है, अब शेष 10 साल भाजपा में काम करूंगा। कांग्रेस बेशक अच्छी पार्टी है, लेकिन इसमें शामिल होने का भला मतलब क्या है?’ ज्योतिरादित्य सिंधिया और आरपीएन सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं के अलावा, तीसरी और चौथी कतार के कई युवा कांग्रेसी नेता कुछ इसी तरह की सोच रखते हैं। आलम यह है कि गुजरात में कांग्रेस ने साल 2017 में भाजपा को कड़ी टक्कर दी, फिर भी उसकी राज्य इकाई को इस विधानसभा चुनाव के लिए मतदाताओं में अपनी पहचान बनाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। वहां कांग्रेस के कई जिलास्तरीय नेता भाजपा में शामिल हो गए हैं। 
लक्ष्य के मामले में भी भाजपा और कांग्रेस के बीच एक बड़ा संरचनात्मक अंतर है। आप भाजपा के विचारों को पसंद करें या न करें, लेकिन उसकी वैचारिक स्थिति साफ है, जबकि कांग्रेस ने आजादी के बाद राष्ट्रवादी आंदोलन की विरासत को आगे बढ़ाया है। आज बहुत से ऐसे लोग, जो भाजपा को वोट नहीं दे सकते, इस बात को लेकर उलझन में हैं कि भाजपा विरोध या मोदी विरोध के अलावा कांग्रेस चाहती क्या है? साल 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के कई पोस्टरों में इंदिरा गांधी मौजूद थीं, तो राजस्थान सरकार के हालिया विज्ञापनों में राजीव गांधी प्रमुखता से दिखे हैं। एक बड़ी आबादी इन दोनों नेताओं की हत्या के बाद पैदा हुई है। 74 प्रतिशत भारतीय 40 साल से कम उम्र के हैं, तो आधे से अधिक तो 30 साल से कम उम्र के हैं। इस नए भारत से कांग्रेस आखिर किस तरह संवाद करेगी? यही चुनौती उसके अगले अध्यक्ष के सामने होगी।

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