समरसता की ओर
विजयदशमी के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सालाना जलसे में सरसंघचालक मोहन भागवत के संबोधन से मानो राजनीतिक भूचाल आ गया है। इस अवसर पर पर्वतारोही संतोष यादव के मुख्य अतिथि होने से बहुत से लोग परेशान दिख रहे हैं।
मुझे वह कहानी याद आ गई, जब एक वैज्ञानिक ने पानी का जहाज बनाया और उसे समुद्र में उतारकर चलाने का प्रदर्शन करना था, तो आलोचकों ने कहा कि यह तो चल ही नहीं सकता, कभी नहीं चलेगा, लेकिन जब कुछ कोशिश के बाद वह जहाज चल गया, तब आलोचकों ने कहा कि चल भले गया हो, मगर यह अब रुकेगा नहीं।
कमोबेश ऐसा ही उन आलोचकों को लगता है, जो संघ के खासतौर से महिलाओं और मुसलमानों को लेकर बयानों व कार्यक्रमों पर शंका प्रकट करते हैं। अक्सर संघ की आलोचना यह कहकर होती है कि संघ महिला और मुस्लिम विरोधी है, वह उनसे दूरी बनाए रखता है, लेकिन जब भी वह इस ओर कोई कदम बढ़ाने की कोशिश करता दिखता है, तब कहा जाता है कि यह तो सिर्फ दिखावा है।
हो सकता है, इस आलोचना में कुछ हद तक सच्चाई हो, पर संघ या किसी भी संगठन के महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ खड़े होने में नुकसान क्या हो सकता है? फिर इतना हंगामा है क्यों बरपा?
आरएसएस के सालाना जलसे में इस बार पर्वतारोही संतोष यादव को मुख्य अतिथि बनाया गया। यह पहला मौका नहीं था, जब कोई महिला संघ के वार्षिक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि रही हो।
यह भी तथ्य है कि संघ के व्यक्ति निर्माण के कार्यक्रम यानी संघ शाखाओं में महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता है, लेकिन महिलाओं से संघ को इतना गुरेज भी नही है। संघ के पहले सरसंघचालक डॉक्टर हेडगेवार ने ही महिलाओं के लिए 1936 में ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की शुरुआत की थी।
संघ के एक कार्यक्रम में अनुसुइया बाई काले मौजूद रही थीं, तो एक बार इंडियन वीमन्स कॉन्फ्रेंस की मुखिया राजकुमारी अमृत कौर भी संघ शिविर का हिस्सा थीं। दिसंबर 1934 में भी संघ के एक कार्यक्रम की वह मुख्य अतिथि थीं। आपातकाल के बाद हुए कार्यक्रम में कुमुदताई रांगेनकर मुख्य अतिथि थीं।
मसला महिला को मुख्य अतिथि बनाने का नहीं है, सवाल है कि संघ या कोई संगठन महिलाओं को किस नजरिये से देखता है? संघ प्रमुख ने अपने संबोधन में कहा, जो सारे काम पुरुष करते हैं, वे महिलाएं भी कर सकती हैं, लेकिन जो काम महिलाएं कर सकती हैं, वे सभी काम पुरुष नहीं कर सकते।
महिलाओं को बराबरी का अधिकार, काम करने की आजादी और फैसलों में भागीदारी देना जरूरी है। संघ के सहयोगी संगठनों में भी महिलाएं सक्रिय भूमिका में रहती हैं। भाजपा में भी और उसकी सरकार में भी महिलाओं को सक्रिय भूमिका में देखा जा सकता है, लेकिन वे अभी निर्णय करने की भूमिका में नहीं आई हैं।
संघ के सफर के सौ साल 2025 में पूरे होने को हैं, लेकिन अभी तक उसमें निर्णायक भूमिका या उच्च पदों पर कोई महिला नहीं है। संघ अब जल्दी ही कुछ बड़े पदों पर महिलाओं को जगह देने पर विचार कर रहा है।
वैसे दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के चालीस साल के इतिहास में कोई महिला अध्यक्ष नहीं बनी है, हालांकि, मोदी सरकार में मंत्रिमंडल में महिलाओं की तादाद बढ़ी है।