अर्थव्यवस्था का सच

इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ी दो खबरें सुर्खियों में हैं। पहली यह कि भारतीय रिजर्व बैंक ने 2021-22 की मुद्रा एवं वित्त संबंधी रिपोर्ट में कहा है कि कोरोना-काल में देश की अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई में 10 साल से भी अधिक का वक्त लग सकता है।

दरअसल, कोविड-19 से पहले हमारी अर्थव्यवस्था तकरीबन चार फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही थी। इसलिए अनुमान लगाया गया है कि बीते दो वर्षों में यह कम से कम आठ फीसदी और बढ़ जाती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और अब इसकी भरपाई में तकरीबन 13 साल का समय लग सकता है।

दूसरी खबर एलआईसी के आईपीओ से जुड़ी है, जिसके माध्यम से सरकार तकरीबन 21 हजार करोड़ रुपये कमा सकती है। यह आईपीओ कल खुल गया और निवेशकों ने इसकी तरफ अच्छा रुझान दिखाया है।  इन दोनों खबरों में कई किंतु-परंतु हैं। मगर अहम सवाल यह है कि क्या हमारी अर्थव्यवस्था 2019 के स्तर को पार कर चुकी है? आधिकारिक आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं, लेकिन इसमें कई पेच भी हैं।

मसलन, ये आंकड़े सिर्फ संगठित क्षेत्र के हैं, जबकि हमारी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के हवाले है। फिर, संगठित क्षेत्र में भी पर्यटन, होटल, रेस्तरां जैसे ‘कॉन्टेक्ट सर्विस’ का हाल अब तक बुरा है। रिजर्व बैंक ने 1,500 कंपनियों का सैंपल लेकर  अनुमान लगाया है कि 20-24 फीसदी की दर से यह क्षेत्र आगे बढ़ रहा है।

अगर मान भी लें कि यह सैंपल शेयर बाजार में सूचीबद्ध 6,000 कंपनियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह देश के छह करोड़ सूक्ष्म उद्योगों का भी चेहरा है। चूंकि कोरोना-काल में मांग असंगठित क्षेत्र से छिटककर संगठित क्षेत्र के पाले में चली गई, इसलिए हमारी खुशहाली की खबर सही नहीं है।


देश की आर्थिकी का पता इससे भी चलता है कि अभी हमारा ‘कंज्यूमर कॉन्फिडेंश’ 71.7 है, जबकि महामारी से पहले यह 104 था। यह सूचकांक अपनी अपेक्षित आर्थिक स्थिति को लेकर उपभोक्ता के आशावादी या निराशावादी होने का संकेत है। चूंकि यह सूचकांक अब भी 2018-19 के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है, इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था के 2019 के स्तर पर पहुंचने की पूरी मुनादी नहीं की जा सकती।


तो, क्या सरकार के पास साधन नहीं है? असल में, सरकार की कमाई दो तरह से होती है। पहला रास्ता टैक्स, यानी करों का है, जबकि कमाई का दूसरा हिस्सा सरकारी कंपनियों के लाभांश, स्पेक्ट्रम आदि की नीलामी, विनिवेश से प्राप्त होने वाले राजस्व हैं, जिसे ‘नॉन-टैक्स रेवेन्यू’ कहते हैं। हालांकि, विनिवेश को सरकार की कमाई नहीं मानना चाहिए।

यह ठीक वैसा ही है, जैसे कोई अपना एक घर बेचकर दूसरा घर खरीदे। यह शुद्ध निवेश नहीं है। अलबत्ता, इसमें ‘कैपिटल स्टॉक’ कम होता है। इस साल के बजट में सरकार ने 7.5 लाख करोड़ रुपये के ‘कैपिटल इन्वेस्टमेंट’ का लक्ष्य रखा है। पवनहंस, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के बाद एलआईसी का आईपीओ इसी कवायद का हिस्सा है।

मगर यह संपत्ति के चरित्र में बदलाव है। इसके उलट, अगर विनिवेश से मनमाफिक पैसे नहीं जुटाए जा सके, तो ‘कैपिटल स्टॉक’ का हमें नुकसान होता है, जैसे पवनहंस के मामले में हुआ।
देखा जाए, तो कोरोना महामारी का असर दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा है। कमोबेश सभी मुल्कों ने कर्ज लेकर खर्च किए हैं। यह करना उनकी मजबूरी भी थी, क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो बाजार में मांग और कम हो जाती।

अमेरिका में इसलिए सुधार कहीं तेजी से हो सके, क्योंकि उसने जितनी राशि अर्थव्यवस्था में झोंकी, वह उसकी जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की करीब 20 फीसदी थी। हमने भी तकरीबन तीन लाख करोड़ रुपये अपनी अर्थव्यवस्था के हवाले किए, पर यह हमारी जीडीपी का महज 1.5 प्रतिशत था। यही वजह है कि हमारे यहां मांग में तेजी नहीं आ सकी।

हमने ‘सप्लाई-साइड’ नीति अपनाई, न ‘मांग-साइड’। यहां तक कि साल 2019 में हमने यह सोचकर कॉरपोरेट टैक्स की दरों को कम किया कि कंपनियां बचे पैसों का निवेश करेंगी, लेकिन दूरसंचार, आईटी, फार्मा जैसे क्षेत्रों के अलावा तमाम कंपनियां मांग की कमी से जूझती रहीं और उन्होंने निवेश से परहेज किया। नतीजतन, महामारी से पहले हमारा निवेश प्रतिशत 36 के करीब था, जो 32 पर पहुंच गया।


ऐसे में, कमाई कैसे बढ़ाई जाए? इसके लिए सरकार को विशेषकर गरीबों को रोजगार मुहैया कराना होगा। रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि महामारी के दौरान बेशक मनरेगा का बजट बढ़ाकर 1.1 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था। इसमें लाभार्थी को महज 45 दिनों का काम मिला, जबकि दिनों की संख्या कम से कम 100 होनी चाहिए।

साफ है, मनरेगा में पैसा लगभग दोगुना करना होगा। इसी तरह, शहरी रोजगार गारंटी योजना पर भी ध्यान देना होगा, जिसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, शहरी ढांचागत विकास आदि पर खर्च बढ़ाना होगा।


सूक्ष्म उद्योगों को जीएसटी से होने वाली परेशानी भी दूर करनी होगी। संभव हो, तो इसको ‘लास्ट-प्वॉइंट टैक्स’ बना दिया जाए, यानी जब उत्पाद उपभोक्ता के हाथों में पहुंचे, तभी एकमात्र कर लगे। इससे इनपुट क्रेडिट देने की परंपरा खत्म हो सकती है, जिसका लघु व सूक्ष्म उद्योग को काफी नुकसान हुआ है।

देश के सूक्ष्म उद्योग तकनीकी अभाव, कर्ज न मिलना और मार्केटिंग न कर पाने की जैसी विवशताओं से भी जूझ रहे हैं। इसके लिए सहकारी संस्थाएं बननी चाहिए। यह जानना दिलचस्प है कि एमएसएमई सेक्टर में 99 फीसदी हिस्सा सूक्ष्म उद्योगों का ही है, पर इस क्षेत्र के लिए होने वाली सरकारी घोषणाएं अमूमन लघु व मध्यम उद्योग के खाते में चली जाती हैं।

यदि सूक्ष्म उद्योगों के लिए अलग और लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिए अलग मंत्रालय का गठन कर दिया जाए, तो न सिर्फ सूक्ष्म उद्योगों में रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे, बल्कि यहां मांग भी बढ़ जाएगी। सरकार को प्रत्यक्ष करों की दरें बढ़ानी चाहिए और परोक्ष करों को समर्थन देना चाहिए। अगर ये कुछ कदम भी उठाए जाएंगे, तो हमारी अर्थव्यवस्था कहीं तेजी से पटरी पर लौट सकती है।

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