बेलगाम सियासत 

तेलंगाना के विधायक टी राजा सिंह के नफरती बोल ने भारतीय राजनीति के एक नए चरित्र को उजागर किया है। कुछ वर्ष पहले तक जन-प्रतिनिधियों का दागी होना उनको सुर्खियां दिलाता था, लेकिन अब विवादित बयान उनके लिए महत्व रखने लगा है। इस प्रवृत्ति के जन्म की कई वजहें हैं।

दरअसल, लोकतंत्र में धारणा की राजनीति काफी मायने रखती है। जनता अब किसी नेता को इस आधार पर नहीं आंकती कि उसने क्या काम किया या कितने वायदे पूरे किए, बल्कि चुनाव जीतने का सबसे बड़ा हथकंडा यही है कि माहौल किस तरह का बनाया गया है।

धारणा की यह लड़ाई सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों तरफ के नेता खेलते हैं। चूंकि कामकाज का जिक्र अब ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता, इसलिए नेताओं में जुबानी जंग तेज हो चली है, जिसमें कट्टर धार्मिक बयानबाजी के साथ-साथ विरोधी नेताओं का चरित्र-चित्रण भी शामिल है।

स्थिति यह है कि कोई नेता जब अपना संदेश जनता तक पहुंचाता है, तो उसका 80 फीसदी हिस्सा विरोधी पर प्रहार होता है और शेष 20 प्रतिशत ही कामकाज का ब्योरा।

हमारे माननीयों को लगता है कि जो जितना आक्रामक बोलेगा, जनता उसे उतना ही पसंद करेगी।  यहां तक कि जिन मंचों पर सरकार की नीतियों की चर्चा होनी चाहिए, वहां भी विपक्ष को निशाने पर लिया जाता है। इससे चुनाव जीतने में मदद मिलती है।

नफरती बोल शीर्ष नेतृत्व के मुंह से बमुश्किल सुने जाते हैं। ऐसे बयान आमतौर पर छुटभैये नेता देते हैं। दरअसल, बड़े नेताओं की अंतरराष्ट्रीय छवि होती है। उनके लिए अपनी इस छवि को बचाना आवश्यक होता है। इसीलिए बड़े-बड़े मंचों पर वे सामाजिक व धार्मिक सौहार्द संबंधी अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं। मगर उनका मकसद चुनाव जीतना भी होता है। नतीजतन, मतदान के समय सद्भाव संबंधी तमाम अच्छी बातें किनारे कर दी जाती हैं और हर तिकड़म अपनाया जाने लगता है। ऐसे नेताओं के मुताबिक, अच्छी बातें चुनाव जीतने की गारंटी नहीं हैं, इसलिए वे तीखी व नफरती बयानबाजी या आरोप-प्रत्यारोप संबंधी बहस का हिस्सा बन जाते हैं। सामाजिक और धार्मिक सौहार्द संबंधी उनके तमाम तर्क धरे के धरे रह जाते हैं और हर धर्म, जाति व समुदायों का जिक्र होने लगता है। इससे उनको अपने समुदाय के वोटरों को गोलबंद करने में मदद मिलती है। यानी, उनके लिए खाने के दांत और होते हैं और दिखाने के और।
दूसरी बात, जब पार्टियों का विस्तार होता है, तो शीर्ष नेतृत्व के लिए हर एक कार्यकर्ता अथवा नेता पर नियंत्रण करना मुश्किल होता है। ऐसे में, स्थानीय स्तर पर काम करने वाले नेताओं या कार्यकर्ताओं को अनर्गल बयान देने से रोक पाना काफी मुश्किल हो जाता है। फिर, छोटे नेताओं की जिम्मेदारी पार्टी के पक्ष में जन-समर्थन जुटाना भी होता है और इसके लिए वे माहौल को देखते हुए दूसरी जाति, धर्म या समुदाय पर प्रहार करता है ।
इन सबका मतलब यह न निकाला जाए कि जो नेता नफरती या धार्मिक बयानबाजी करते हैं, उनकी भावना भी बयान के मुताबिक ही होती है। कुछ नेता ऐसे भी हैं, जिनकी मानसिकता उनके बयानों के विपरीत होती है, लेकिन उनका मुख्य ध्येय जनादेश हासिल करना और अपनी पार्टी का विस्तार करना होता है, इसलिए वे अपने मतदाताओं की मानसिकता को भांपते हुए अनर्गल प्रलाप करते हैं। तो क्या फिजूल की बयानबाजी के लिए जनता दोषी है? पूरी तरह बेशक न हो, लेकिन काफी हद तक उसे कुसूरवार ठहराया जा सकता है। सच यही है कि जिस जनता के सामने इस तरह के बयान जारी किए जाते हैं, वे इनको पसंद करती है। 
आज के समय में अपने देश में ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है, जो इस तरह के शब्दों को नापसंद करती है या उनको लगता है कि सामाजिक सद्भाव के लिए ऐसे बयानों से बचा जाना चाहिए। अलबत्ता, हमारे आसपास ऐसे लोगों की संख्या काफी है, जो सोचते हैं कि इतिहास की गलतियों को आज किसी भी कीमत पर सुधारा जाना चाहिए। इस मानसिकता को नेतागण बखूबी भांप गए हैं, इसीलिए जिस समुदाय का समाज में दबदबा होता है, उसी के अनुसार वे वक्तव्य जारी करते हैं। अतीत में हमने यह भी देखा है कि नफरती बयान देने वालों का किस तरह से स्वागत-सत्कार भी होता है। जगह के हिसाब से नेताओं का बयान बदलना भी इसी प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है।
जाहिर है, दोष कहीं न कहीं मतदाताओं का है। सिर्फ नेताओं के मत्थे यह गलती नहीं मढ़ी जा सकती। हकीकत यही है कि जनता अब खुले नजरिये से चीजों को देखना पसंद नहीं करती। उसने ऐसा चश्मा चढ़ा लिया है, जिससे मनोनुकूल एकतरफा चीजें उसको दिखती हैं। कुछ लोग तर्क देते हैं कि नफरती बोल के खिलाफ कानून का सहारा लेना चाहिए। मगर मेरा यही मानना है कि कानूनी बंदिशों से इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। अपने देश में भले ही सख्त से सख्त कानून बन जाएं, पर उसके निर्माण से पूर्व समाज विरोधी तबका उसका काट भी निकाल लेता है। हां, कानून से हमें आंशिक सफलता जरूर मिल सकती है। संभव है कि शुरुआत में हम ऐसे तत्वों पर नकेल लगाने में सफल हो जाएं, पर दीर्घावधि में सख्त कानून शायद ही संवदेनशील नागरिकों की मदद कर सकेगा।

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