जांच की आंच

जब राष्ट्र अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाता है, तब यही उम्मीद की जाती है कि वह भू-राजनीतिक रूप से मजबूत, समृद्ध और न्यायप्रिय देश होगा। इसके लिए जरूरी है कि मुल्क में कानून का राज हो और इस तरह से हुकूमत की जाए कि नागरिकों को उचित आजादी नसीब हो।

आम नागरिकों का दैनिक जीवन में पुलिस से वास्ता पड़ता है, जो उनके जान-माल की सुरक्षा करती है। दफ्तर के बाबुओं से जुड़े अपराध और जटिल आर्थिक भ्रष्टाचार के लिए सरकार जांच एजेंसियां नियुक्त करती है, जिनकी सफलता या विफलता उनकी कुशलता पर निर्भर करती है।


हाल ही में केंद्रीय जांच ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठे। विपक्ष इन एजेंसियों की कथित चूक को लेकर मुखर रहा है। इन पर सरकार के हाथों में खेलने का आरोप लग रहा है।

विडंबना है कि न सिर्फ राजनेता, बल्कि अब आम लोग भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। आर माधवन की हालिया फिल्म रॉकेटरी : द नंबी इफेक्ट  इस मुद्दे को बखूबी उजागर कर रही है। यह फिल्म इसरो के वैज्ञानिक डॉ नंबी नारायण के जीवन पर आधारित है। इसमें जांच एजेंसियों की विफलता उजागर की गई है।

दरअसल, सामान्य गति से चल रहा नंबी का जीवन केवल एक संदेह के कारण बदल गया। जांच एजेंसियां उनके पीछे लग गईं। यहां तक कि पुलिस और सीबीआई ने भी उनके साथ दुर्व्यवहार किया।यह पूरा प्रकरण आम नागरिकों के जीवन पर सुरक्षा एजेंसियों के अधिकार की ओर इशारा करता है।

एजेंसियां पूर्णाधिकार की हिमायती दिखती हैं। हालांकि, इससे भी बुरी बात मध्यम वर्ग का व्यवहार है। शोचनीय है कि इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा, वह भी केरल जैसे राज्य में, जिसे सबसे अधिक शिक्षित सूबा माना जाता है, सबसे भयावह तरीके से व्यवहार करता है।

ऐसे लोग वैज्ञानिक को अपने पूर्वाग्रहों व वैचारिक आस्था के चश्मे से देखते हैं। जांच एजेंसियों की संदिग्ध कार्रवाइयों से खुश होने वाले नागरिक यह नहीं सोचते कि एक दिन वे भी इसका शिकार बन सकते हैं।
निस्संदेह, किसी बुरे कर्म का बचाव नहीं किया जा सकता।

जिसने भी कानून का उल्लंघन किया है, उसके साथ सख्ती से निपटा जाना चाहिए। कानून के राज पर लोगों के विश्वास को मजबूत करने के लिए यह किया जाना महत्वपूर्ण है। मगर यहां मुद्दा यह है कि सुरक्षा एजेंसियां किस तरह से किसी संदिग्ध के साथ व्यवहार करती हैं।

जांच के दौरान थर्ड डिग्री का इस्तेमाल किया जाता है। साफ-सुथरा सामाजिक जीवन जीने वाले व समाज में योगदान देने के लिए चर्चित लोगों को भी नहीं बख्शा जाता। साफ है, आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार जरूरी है। यह प्रकरण यही बताता है।

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