तो बढ़ेगा संकट

देश भर में भले ही मानसूनी बारिश सामान्य से ज्यादा हुई है, लेकिन बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित सात राज्यों के अन्नदाता सूखे की आशंका से घबरा गए हैं। इन सूबों में अब तक इतना पानी नहीं बरसा है कि खेतों में धान की रोपाई के लिए जरूरी जल का जमाव हो सके।

15 जुलाई तक के आंकड़े बताते हैं कि देश भर में 27 लाख हेक्टेयर कम रकबे पर धान की बुआई की गई है। इसका मतलब है कि चावल का उत्पादन कम हो सकता है। और, अगर ऐसा हुआ, तो कम से कम दो तरह की समस्याओं से हमारा सामना होगा।

पहली समस्या यह कि देश भर में महंगाई बढ़ सकती है। पिछले सीजन में गेहूं का कम उत्पादन हुआ था। सरकार भी 1.87 करोड़ टन गेहूं खरीद सकी, जबकि पूर्व में चार करोड़ टन के आसपास की खरीद की जाती थी। ऐसे में, यदि चावल की पैदावार भी कम होती है, तो बाजार में इसकी कमी हो जाएगी, जिससे इसकी कीमत बढ़ सकती है।

इसका दबाव स्वाभाविक तौर पर गरीब व वंचित तबकों पर सर्वाधिक होगा। दूसरी तरह की समस्या गरीब कल्याण योजना से जुड़ी है। अभी सरकार ने सितंबर तक इस योजना के तहत जरूरतमंदों को अनाज मुहैया कराने की बात कही है।

अगर धान का उत्पादन कम होगा, तो चावल की सरकारी खरीद भी कम होगी। इससे खाद्य सुरक्षा के मूल मकसद को पाना मुश्किल होगा। हालांकि, अभी हम खाद्य संकट से नहीं जूझ रहे, लेकिन सावधानी जरूरी है। सरकारी गोदामों में पर्याप्त अनाज होना चाहिए।

ऐसा किया जाना सिर्फ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लोगों को राहत पहुंचाने के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि यदि महंगाई बढ़ती है, तो खुले बाजार में अनाज बेचकर सरकार इसके दाम नियंत्रित करे। हर साल सरकार खुले बाजार में अनाज बेचती है, इस बार संभवत: उसे ज्यादा अनाज मुहैया कराना पड़ सकता है।


साफ है, खाद्य सुरक्षा को लेकर हमें खास सावधानी बरतनी होगी। अभी दुनिया भर में करीब 70 देश खाद्य पदार्थों की महंगाई से मुकाबला कर रहे हैं, और रूस-यूक्रेन जंग ने वैश्विक आपूर्ति शृंखला को इस कदर प्रभावित किया है कि विकासशील देशों में खाद्यान्न संकट गहराने लगा है।

हम ऐसे किसी संकट में न फंसे, इसके लिए केंद्र सरकार को विशेष पहल करनी होगी। यहां यह तर्क बेमानी है कि चावल का निर्यात रोककर सरकार जरूरी अनाज का भंडारण कर सकती है। वास्तव में, हम बासमती चावल का ही निर्यात करते हैं, जिसका खाद्य सुरक्षा में बहुत ज्यादा महत्व नहीं है।

हमें मुख्य अनाज का भंडारण करना होगा। संभव हो, तो प्रधानमंत्री खाद्य सुरक्षा योजना को सितंबर से बढ़ाकर कम से कम मार्च, 2023 तक किया जाना चाहिए, ताकि महंगाई की मार झेल रही जनता को कुछ हद तक राहत मिल सके। दिक्कत यह है कि मौसम पर हमारा कोई वश नहीं है।

उम्मीद यही थी कि इस साल अच्छी-खासी बारिश होगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। दुर्भाग्य से इसका असर उन राज्यों में दिख रहा है, जहां चावल का उत्पादन अधिक होता है। इसके बरअक्स, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान जैसे राज्यों में अच्छी बारिश हो रही है, जहां खेती-बाड़ी से जुड़ा बुनियादी ढांचा भी काफी बेहतर है।

ऐसी स्थिति में हमें उत्तर भारत के किसानों को पर्याप्त सुरक्षा देनी होगी। इसके लिए कुछ उपाय किए जा सकते हैं, जैसे सरकार यहां के किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाजों की खरीद करे। इससे अन्नदाताओं की आय बढ़ेगी। बिहार जैसे राज्यों में अनाजों की बिल्कुल भी सरकारी खरीद नहीं होती, जबकि झारखंड में नाममात्र की खरीदारी की जाती है।


उत्तर भारत के ये राज्य कृषि के मामले में तो पीछे हैं ही, यहां गरीबों की संख्या भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा है। ऐसे में, किसानों को फसल की वाजिब कीमत देने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि खाने और खरीदने की उनकी क्षमता बरकरार रहे।

इसके लिए जन-वितरण तंत्र से मुफ्त अनाज या कम कीमत पर खाद्यान्न मुहैया कराए जाने जैसे उपाय जारी रखने चाहिए। जरूरत पड़ने पर अन्य उपाय भी किए जाने चाहिए, ताकि महंगाई की मार से यह तबका कम प्रभावित हो। अच्छी बात है कि सरकार के पास ऐसा तंत्र मौजूद है।

वह चाहे, तो खाद्य सुरक्षा कानून, मध्याह्न भोजन योजना जैसे उपायों से किसानों को तत्काल मदद पहुंचा सकती है। इन उपायों की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि कोरोना महामारी के कारण लोग आर्थिक रूप से टूट चुके हैं। कुछ प्रयास हमें दीर्घावधि को ध्यान में रखकर करना होगा।

यह ध्यान रखना होगा कि कृषि के क्षेत्र में देश में काफी विविधता है और राज्यों के बीच दूरियां भी काफी अधिक हैं। पंजाब की तुलना यदि बिहार से करें, तो बिहार की जमीन ज्यादा उपजाऊ है और यहां पानी की कमी भी नहीं है, लेकिन बाढ़ की मार और बुनियादी ढांचे के अभाव के कारण यहां प्रति किसान उत्पादकता काफी कम है।

यहां किसानों की आमदनी भी पंजाब की तुलना में काफी कम है। अगर हम किसानों की आमदनी बढ़ाना चाहते हैं और प्रति किसान उत्पादकता में वृद्धि करना चाहते हैं, तो हमें कृषि में पर्याप्त निवेश करना होगा, सिंचाई की व्यवस्था अच्छी करनी होगी, वाटर चैनल व सिंचाई को बढ़ावा देना होगा, बाढ़ का प्रकोप थामना होगा और बुनियादी ढांचे के निर्माण पर संजीदगी दिखानी होगी।

पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों पर हमारी निर्भरता हमें कई तरह के नुकसान पहुंचा रही है। यहां अत्यधिक पैदावार की महत्वाकांक्षा ने न सिर्फ पर्यावरण संकट को बढ़ाया है, बल्कि किसानों की सेहत को भी प्रभावित किया है। पानी की कमी तो खैर बढ़ी ही है।

इसीलिए, धान की पैदावार वाले राज्यों पर ध्यान देकर हम न सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा सकते हैं, बल्कि राज्यों की आर्थिक विषमता भी कम कर सकते हैं।


साफ है, एक-दो उपायों से बात नहीं बनेगी। किसानों के लिए बीज की उपलब्धता से लेकर फसलोपज की बिक्री तक का पूरा तंत्र खड़ा करना होगा। इसमें मंडी की उचित व्यवस्था भी शामिल है। नए व वैज्ञानिक तरीके की कृषि पद्धति का प्रसार मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी मांग है।

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