शीत युद्ध की आती आहट

यूक्रेन पर रूस के हमले के चार महीने पूरे हो रहे हैं। अब यह स्पष्ट है कि युद्ध छिड़ने से पहले रूस के जो लक्ष्य थे, वे पूरे नहीं होंगे। संभवत: रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यह नहीं सोचा था कि यूके्रन सरकार और जनता इतनी मजबूती से उनकी सेनाओं का मुकाबला करेगी और अमेरिका व नाटो देश उनकी हरसंभव मदद करेंगे।

अब रूस के लक्ष्य सीमित रह गए हैं- पूर्वी यूके्रन यानी डोनबास के इलाके पर पूर्ण कब्जे के साथ-साथ दक्षिण यूक्रेन में ओशकिव और काले सागर (ब्लैक सी) के तट पर नियंत्रण। अभी तो लगता यही है कि रूस इस मंशा में कामयाब हो जाएगा, हालांकि यह साफ नहीं है कि ओडेसा बंदरगाह पर वह किस तरह का रुख अपनाएगा?

सवाल यह है कि इस युद्ध का रूस, यूरोप व शेष दुनिया पर क्या असर पड़ेगा और, रूस अपने सीमित लक्ष्य की क्या कीमत चुकाएगा? राष्ट्रपति पुतिन यही मानते हैं कि रूस की यूक्रेन में ऐतिहासिक भूमिका थी, जिसके चलते कीव को यह अधिकार नहीं था कि वह पश्चिम के पाले में, खासकर नाटो के साथ चला जाए।

अभी ऐसा नहीं लगता कि आने वाले वर्षों में यूक्रेन नाटो का सदस्य बन सकेगा, लेकिन स्वीडन और फिनलैंड की सदस्यता नाटो के देश अंतत: स्वीकार करेंगे, जिसका रूस की सामरिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यानी, अपनी सामरिक स्थिति को मजबूत करने के लिए जिस जंग में रूस ने हाथ डाले, वही अब उसके हाथ जला रही है।


रूस के सामने एक और समस्या है, जो नाटो के देशों द्वारा यूक्रेन को दिए जाने वाले समर्थन से पैदा होगी, और लंबे वर्षों तक चलेगी। नाटो के देश अब भी यूक्रेन को युद्ध सामग्री दे रहे हैं, और वे इतनी मात्रा में यह मुहैया कराते रहेंगे कि स्थिति सामान्य नहीं हो सकेगी।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जल्द ही यूक्रेन को एक अरब डॉलर की अतिरिक्त सैन्य मदद देने का एलान किया है। कहा जा सकता है कि रूस जिस प्रकार से 1980 के दशक में अफगानिस्तान के दलदल में फंस गया था, उसके लिए ठीक वही स्थिति नाटो के देश, खासतौर से अमेरिका अब यूक्रेन में पैदा करना चाहता है। 


बहरहाल, यूक्रेन पर आक्रमण से यूरोप की सामरिक स्थिति तो बदली ही, विश्व की आर्थिक स्थिति भी चरमरा गई है। विशेषकर ऊर्जा आपूर्ति पर बुरा असर पड़ा है, जिसके कारण कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के दाम अत्यधिक बढ़ गए हैं। इसका बुरा असर भारत पर भी पड़ रहा है।

इसके अलावा, यूक्रेन से काफी मात्रा में गेहूं का निर्यात होता है और पश्चिमी एशिया के देश व अफ्रीका इसी गेहूं पर निर्भर हैं। इन दिनों यह आपूर्ति बंद है, जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी ने चेतावनी दी है कि यूक्रेन के गेहूं पर निर्भर देशों को भुखमरी का सामना करना पड़ सकता है।

भारत ने भी गेहूं का निर्यात रोक दिया है, लेकिन विश्व खाद्य कार्यक्रम से यह अपील भी की है कि वह ‘गवर्नमेंट टु गवर्नमेंट’ (सरकारी एजेंसियों, विभागों और संगठनों के बीच) गेहूं की आपूर्ति की इजाजत दे। यह एक अच्छा कदम है। 


उधर, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन से टेलीफोन पर बात की, जिसका ब्योरा देते हुए चीनी विदेश मंत्रालय ने बताया है कि बीजिंग रूस की संप्रभुता और सामरिक नजरिये के पक्ष में है।

इस आश्वासन से पुतिन को फिर से राहत मिली होगी, क्योंकि जिस प्रकार से रूस पर पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगाए हैं, उसके कारण आर्थिक दृष्टि से उसे चीन की जरूरत है। यानी, वह जितनी ऊर्जा का आयात रूस से कर रहा है, उसे वह बढ़ाए। साथ ही, अन्य सामग्रियों के आयात में भी कटौती न करे।

खबर भी है कि चीन ने रूस से तेल का आयात बढ़ा दिया है और यह एक साल पहले के स्तर से 55 फीसदी बढ़कर रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। अब सऊदी अरब को पछाड़ते हुए रूस चीन में तेल का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश बन गया है।


रूस और चीन के राष्ट्राध्यक्षों की यह भंगिमा इसी का संकेत है कि चीन अमेरिका की नीतियों का हर सूरत मुकाबला करना चाहता है। हां, यह सच है कि भारत ने भी इस हमले की निंदा नहीं की है, पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारतीय प्रतिनिधियों के बयानों से स्पष्ट है कि नई दिल्ली इसे गलत मानती है।

पहले भारत जहां रूस के सामरिक नजरिये का जिक्र किया करता था, वहीं 24 फरवरी, यानी यूक्रेन पर हमले की शुरुआत वाले दिन से उसने ऐसा करना बंद कर दिया है। नई दिल्ली ने जोर देकर कहा है कि अंतरराष्ट्रीय मसलों का समाधान कूटनीति व बातचीत से ही निकाला जाना चाहिए। इसमें किसी भी देश की संप्रभुता का हनन नहीं होना चाहिए और न ही सीमाओं का उल्लंघन।


इसके उलट, चीन अब भी रूस के सामरिक नजरिये की चर्चा करता है। दरअसल, वह रूस की दुविधा का फायदा उठाना चाहता है। उसके रुख से जाहिर है कि वह अमेरिका और नाटो देशों का परोक्ष रूप से मुकाबला करने के लिए आगे बढ़ रहा है। देखा जाए, तो आज की सबसे बड़ी वैश्विक समस्या अमेरिका और चीन की प्रतिस्पद्र्धा ही है।

चीन की मंशा रूस की उन कमजोरियों से लाभ कमाने की है, जो इस युद्ध के कारण उत्पन्न होंगी। उधर, अमेरिका भी यह जानता है कि यूरोप के देशों पर वह इतना दबाव नहीं बना सकता कि वे रूस से ऊर्जा लेना पूरी तरह बंद कर दें। इसलिए वह रूस पर प्रतिबंध तो बढ़ाएगा, लेकिन इतना ज्यादा भी नहीं कि रूस विवश होकर कोई ऐसा खतरनाक कदम उठा ले, जिससे विश्व शांति को खतरा पैदा हो जाए।


रूस-यूक्रेन युद्ध का विश्व व्यवस्था पर असर पड़ना लाजिमी है। यह भी लगता है कि दुनिया एक नए शीत युद्ध की तरफ बढ़ेगी, जिसमें एक तरफ अमेरिका और उसके यूरोप व एशिया के मित्र राष्ट्र होंगे, तो दूसरी तरफ चीन व रूस। इस परिस्थिति में भारत को लचीली कूटनीति का प्रयोग करना होगा।

भारत के हित रूस के साथ भी हैं और पश्चिम के देशों के साथ भी। साथ ही, नई दिल्ली के लिए सबसे बड़ी सामरिक चुनौती चीन है। इसलिए भारत को एक संतुलित नीति अपनानी होगी। इसके साथ-साथ, हमें दुनिया को यह संदेश भी देना होगा कि भारत स्वतंत्र विदेश नीति का पोषण कर रहा है और वह अमेरिकी खेमे में नहीं जाने वाला।

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker