फिर हिंदुत्व
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव अभी साल भर दूर हैं, पर यहां एक बड़ी जीत हासिल करने के लिए भाजपा ने जमीन बनानी शुरू कर दी है। इसके लिए पार्टी ने बिना किसी लाग-लपेट के हिंदुत्व के अपने आजमाए फॉर्मूले को अपनाने का फैसला किया है।
हाल ही में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता से पार्टी में यह धारणा मजबूत हुई है कि इस तरह की सियासत का कर्नाटक संस्करण भी सफल हो सकता है।
खबरों की मानें, तो राज्य कार्यकारिणी की पिछली बैठक में इस पर चर्चा हुई और हिंदुत्व के एजेंडे को ही आगे बढ़ाने का फैसला लिया गया।
अपने लिंगायत वोट-बैंक को मजबूत करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री पिछले दिनों बेंगलुरु के सिद्धगंगा मठ भी गए थे, जहां उन्होंने शिवकुमार स्वामी की प्रतिमा पर श्रद्धा-सुमन अर्पित किया। यह मौका भले ही स्वामीजी की जयंती का था, लेकिन इसने भाजपा की धर्म-आधारित रणनीति को साफ उजागर कर दिया।
विशेषकर दक्षिण कर्नाटक के कुछ हिस्सों में बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण और विकास संबंधी वायदों ने अब तक पार्टी को आगे बढ़ने में मदद की है। मगर अब इसका विस्तार पूरे राज्य में किया जाएगा, ताकि विधानसभा चुनाव में इसका लाभ लिया जा सके।
भगवा परिवार (आरएसएस और उसके विभिन्न संगठन इसी का हिस्सा हैं, जिनका मुख्य ध्येय हिंदुत्व और उससे जुड़े राष्ट्रवाद को संरक्षित व प्रचारित करना है) इसके लिए दिन-रात काम कर रहा है।
इन सबका असर भी दिखने लगा है, क्योंकि कर्नाटक में अल्पसंख्यकों से जुडे़ मसले तेजी से उठने लगे हैं। हिजाब, अजान, हलाल और हिंदू मंदिरों के बाहर मुस्लिम दुकानदारों के सामान बेचने से जुड़े विवाद इसी पृष्ठभूमि में देखे जाने चाहिए। इन मुद्दों को हवा देकर न सिर्फ यहां तनाव पैदा करने की कोशिश हुई, बल्कि शेष भारत पर भी इसका प्रभाव पड़ा है।
भाजपा निश्चय ही पिछले कुछ दशकों से योजनाबद्ध ढंग से काम कर रही है। सूबाई सत्ता में आने का उसका पहला प्रयास जनता दल (सेक्युलर) के साथ पूरा हुआ था, जब 2007 में उसने एचडी कुमारस्वामी के साथ गठबंधन किया।
मगर यह साथ लंबा नहीं चला। साल 2008 के चुनाव में बीएस येदियुरप्पा (भाजपा) मुख्यमंत्री चुने गए, लेकिन उन्हें बीच में ही पद छोड़ना पड़ा, क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले दर्ज किए गए।
खुद का दल बनाने के लिए उन्होंने पार्टी छोड़ दी, जो राज्य में भाजपा के लिए एक बड़ा झटका था। हालांकि, 2014 में वह फिर लौट आए और दो साल के भीतर ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बन गए। 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को 104 सीटें मिलीं और वह नौ सीटों से बहुमत पाने से चूक गई।
भाजपा सरकार महज तीन दिन चली, और जनता दल (एस) व कांग्रेस ने अप्रत्याशित गठबंधन करके सरकार का गठन कर लिया। मगर यह दोस्ती भी पहले दिन से ही डांवांडोल रही। इस चुनाव में कांग्रेस को 80 सीटें मिली थीं, मगर उसने जनता दल (एस) को समर्थन दिया, जिसके पास महज 37 विधायक थे।
गठबंधन में तनातनी बढ़ने के बाद कांग्रेस और जनता दल (एस) के करीब 20 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। घृणित सियासी चालों के कारण 17 सीटों पर उप-चुनाव हुए और येदियुरप्पा एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुरसी पर काबिज हुए। हालांकि, भाजपा उनसे संतुष्ट नहीं रही।
उसने यह महसूस किया कि येदियुरप्पा उस तरह से हिंदुत्व पर जोर देने को तैयार नहीं थे। नतीजतन, उनको किनारे कर दिया गया और मुख्यमंत्री का ताज बीएस बोम्मई को सौंपा गया।
नई सरकार की कामकाजी क्षमता के बारे में कहने के लिए कुछ खास नहीं है, लेकिन बोम्मई के पदभार ग्रहण करने के बाद से कर्नाटक चर्चा में है। राज्य में एक के बाद दूसरा विवाद खड़ा हो रहा है, जिनमें काफी हद तक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है।
भाजपा को लगता है कि इस ध्रुवीकरण के सहारे उसे 2023 के विधानसभा चुनाव में बहुमत मिल जाएगी और 2024 के लोकसभा चुनावों में भी पार्टी को फायदा होगा। वह सीधे-सीधे जनता दल (एस) की जगह छीन रही है, जिसकी अपील लगातार कम होती जा रही है।
जनता दल (एस) की वोक्कालिगा समुदाय में गहरी पैठ रही है, जिनकी कुल मतदाताओं में 17 फीसदी हिस्सेदारी है। मैसूर और राज्य के अन्य प्रमुख जिलों के आसपास भी उसे समर्थन हासिल है। मगर लिंगायतों के बीच समर्थन जुटाने के बाद भाजपा की नजर इन वोटों पर है।
ऐसे में, इस बात की संभावना कम है कि जनता दल (एस) कोई कड़ा मुकाबला करेगा। लिहाजा, भाजपा से लड़ने की मुख्य जिम्मेदारी कांग्रेस पर ही है। हालांकि, 2018 की नाकामी के बाद भी कागज पर कांग्रेस के समर्थकों की कमी नहीं, लेकिन यह पार्टी खुद अपनी दुश्मन है।
उसमें गुटबाजी खूब है और भाजपा को हराने की कोई ठोस रणनीति भी उसके पास नहीं दिखती। इसके नेता व पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2018 में भाजपा से मुकाबले के लिए ‘अहिंद’ (अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों व दलितों के शुरुआती अक्षरों से बना कन्नड़ शब्द) आंदोलन चलाया था। वह आज भी खूब लोकप्रिय हैं, मगर पार्टी में उनके बरक्स शिव कुमार हैं, जिनके पास भी समर्थकों को जुटाने की अच्छी क्षमता है। ये दोनों मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं।
हालांकि, भाजपा की अपनी चुनौतियां भी हैं। उसके पास बोम्मई जैसे अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय नेता हैं। लिंगायत में पार्टी की अच्छी पैठ जरूर है, पर यह एक समान नहीं है। उत्तरी कर्नाटक में ही, जहां लिंगायत का वर्चस्व है, मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ उसके बेहतर संबंध हैं, क्योंकि वे बासव (लिंगायत संप्रदाय के संस्थापक) के सिद्धांतों का पालन करते हैं।
दलितों के बीच अब भी कांग्रेस का आधार बचा है। हालांकि, भाजपा के पास विकास का मुद्दा भी होता है, जिस संदर्भ में देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव में उसे इसका कितना फायदा मिलता है। बहरहाल, धार्मिक ध्रुवीकरण का उसे उत्तर भारत में फायदा मिला है। कर्नाटक में भी वह इसे आजमाना चाहती है, जिसे दक्षिणी राज्यों का प्रवेश द्वार माना जाता है।