स्कूल बनाम छोटे बच्चे

कोरोना मरीज की बढ़ती संख्या आम लोगों की चिंताएं बढ़ाने लगी हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तो ‘पॉजिटिविटी रेट’ (जांच की कुल संख्या में संक्रमित मरीजों की संख्या का प्रतिशत) दो फीसदी से अधिक हो गई है।

इस बार बच्चों में संक्रमण दर अधिक है। इसने अभिभावकों की उलझन स्वाभाविक बढ़ा दी है। उनकी चिंता दोतरफा है। कोरोना संक्रमण-काल में ऑनलाइन शिक्षण में आई मुश्किलों के कारण वे अब नहीं चाहते कि करीब दो साल के बाद पूरी क्षमता के साथ खोले गए शिक्षण संस्थान दोबारा बंद किए जाएं, और फिर, उनको अपने नौनिहालों की फिक्र भी सता रही है।

जाहिर है, हमें एक ऐसी रणनीति बनानी होगी, जो न सिर्फ हमारे बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करे, बल्कि माता-पिता व अभिभावकों की चिंताएं भी दूर करे। यह मांग हो रही है कि बच्चों का भी टीकाकरण तेजी से होना चाहिए। कुछ अति-उत्साही लोग छोटे-छोटे बच्चों को भी टीका लगाने की वकालत कर रहे हैं।

लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि जब कभी हम कोरोना-रोधी टीके की प्रभाव-क्षमता, यानी एफिकेसी की बात करते हैं, तो वयस्क आबादी ही हमारे सामने होती है। देश-दुनिया में ऐसे अध्ययन सिर्फ वयस्कों पर हुए हैं, बच्चों को लेकर ऐसा कोई शोध हुआ ही नहीं है। यही वजह है कि हमें यह पता नहीं है कि बच्चों के लिए टीकाकरण जरूरी भी है अथवा नहीं?

चूंकि देश में 80 फीसदी से अधिक वयस्क आबादी को टीके लगाए जा चुके हैं, इसलिए हम यह मानकर चल रहे हैं कि बच्चों को भी अब टीका लग जाना चाहिए। 12 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों के लिए टीकाकरण चल भी रहा है। मगर बच्चों पर टीके की प्रभाव-क्षमता को लेकर हम अब भी अंधेरे में हैं। ऐसे में, उनको संक्रमण से बचाने के लिए कुछ प्रयास हमें करने होंगे और कुछ खुद शिक्षण संस्थानों को। 


अपने तईं तो हमें यही करना है कि एहतियातन अपने बच्चों को सिखाएं कि उनको किस तरह साबुन से हाथ धोना है, किस तरह से शारीरिक दूरी बनाकर कक्षाओं में बैठना है, छींक आने पर कैसे मुंह ढकना है, सैनिटाइजर का प्रयोग कितना करना है आदि। ये तमाम बातें आमतौर पर बच्चों को सिखाई भी जाती हैं।

अगर हम यही करते रहें, तब भी हम अपने बच्चों को काफी हद तक संक्रमण से सुरक्षित रख सकते हैं। लेकिन सिर्फ यही उपाय हमारे नौनिहालों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं।
दरअसल, अभी फ्रांस और ब्रिटेन जैसे राष्ट्रों में भी कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं।

वहां बच्चे भी संक्रमित हो रहे हैं और वयस्क भी। मगर यहां बच्चों के स्कूल पूरी क्षमता के साथ चल रहे हैं। उनका मानना है कि जब शिक्षण संस्थान कोविड-उपयुक्त व्यवहारों का संजीदगी से पालन कर रहे हैं और कोरोना से बचने के लिए जिन सहूलियतों की दरकार है, वे मुहैया करा रहे हैं, तो बच्चों को घरों में रखने का कोई औचित्य नहीं।

अलबत्ता, इससे उनके पठन-पाठन का नुकसान ही होता है। मगर अपने देश में कई तरह की दिक्कतें हैं। यह संभव है कि बड़े शहरों के स्कूल कोरोना दिशा-निर्देशों का पालन कर रहे हों, लेकिन छोटे कस्बों अथवा गांवों में, जहां अधिकांश स्कूलों के पास बुनियादी ढांचा तक नहीं है, वहां यह उम्मीद भला कैसे कर सकते हैं कि वे बच्चों से कोविड उपयुक्त व्यवहार कराने को लेकर आग्रही होंगे?


यह मान भी लें कि बड़े बच्चों में चल रहा टीकाकरण उनको कोविड-19 से बचा लेगा, लेकिन 12 साल से कम उम्र के उन बच्चों का क्या, जो काफी छोटे हैं? उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे स्कूलों में खुद से कोविड-उपयुक्त व्यवहार का पालन करेंगे? मैदान में खेलते वक्त, प्रार्थना के समय या फिर कक्षाओं में वे मास्क पहने रहेंगे, इसकी भी गारंटी नहीं दी जा सकती।

ऐसे में, कुछ प्रयास शिक्षण संस्थानों को भी करने होंगे। उनको यह सुनिश्चित करना होगा कि 1 अप्रैल को जारी आखिरी प्रोटोकॉल का वे ईमानदारी से पालन करेंगे। इन दिशा-निर्देशों में बताया गया है कि संस्थान किस तरह से कोविड उपयुक्त व्यवहारों का पालन सुनिश्चित कर सकते हैं।

इसका मतलब है कि शिक्षण संस्थानों में हाथ धोने के लिए पर्याप्त पानी की व्यवस्था होनी चाहिए, कक्षाओं से बाहर सैनिटाइजर की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए और मास्क पहनना अनिवार्य होना चाहिए। इनका पालन करना न सिर्फ स्कूल स्टाफ, शिक्षक और बच्चों के लिए जरूरी है, बल्कि स्कूल आने वाले अभिभावक भी इनकी अनदेखी नहीं करें।

दिक्कत यही है कि बड़े बच्चों को कुछ हद तक समझाया जा सकता है, पर छोटे बच्चों से कोविड-उपयुक्त व्यवहार का पालन सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी शिक्षकों को ही निभानी होगी।


ऐसे समय में, जब भारत ने कोरोना के खिलाफ हर्ड इम्यूनिटी (70 फीसदी से अधिक आबादी का कोरोना के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता बना लेना) हासिल कर ली है, छोटे-छोटे बच्चों के लिए टीकाकरण की वकालत करना गले नहीं उतरता, जब तक कि हमारे पास कोई वैज्ञानिक साक्ष्य न हो।

अगर हम छोटे-छोटे बच्चों को भी टीका लगाएंगे, तो कोविड के खिलाफ उनके शरीर में प्राकृतिक प्रतिरोधक बनने की क्षमता कुंद हो जाएगी। वैसे भी, बच्चों में कोरोना को लेकर अभिभावकों को बहुत ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ऐसे कई अध्ययन हुए हैं, जो बताते हैं कि छोटे बच्चे कोरोना से गंभीर रूप से शायद ही संक्रमित होते हैं। 


यह अच्छी बात है कि स्कूल जाने वाले प्राथमिक स्कूलों के बच्चों को कम से कम 60 फीसदी तक सामान्य टीके लग चुके होते हैं, इसलिए शिक्षण संस्थान सुरक्षा उपाय अपनाकर बच्चों में बढ़ रहे संक्रमण को रोक सकते हैं। मगर सवाल यह है कि क्या हमारे शिक्षण संस्थान ऐसे उपाय अपनाने की स्थिति में हैं? हमारे रणनीतिकारों की चिंता यही होनी चाहिए। 

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