बाबा साहब

यह भारतीय समाज का सौभाग्य रहा है कि इसको 20वीं शताब्दी में आत्म-निरीक्षण की क्षमता पैदा कर सकने वाले चिंतकों और नायकों का मार्गदर्शन मिला। दुनिया के कई समाजों में आत्म-निरीक्षण की क्षमता के अभाव में गृह युद्ध से लेकर विदेशी ताकतों की गुलामी तक की दुर्घटनाएं हुई हैं।

भारत में जाति व वर्ग से जुड़े भेदभाव और धर्म से जुड़ी कटुता के कारण समाज के विघटन व अराजकता की बारंबारता का खतरा था। लेकिन महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरोजनी नायडू, नरेंद्र देव और बाबा साहब भीमराव आंबेडकर जैसे मनीषियों ने भारतीय समाज का विविध तरीकों से मार्गदर्शन किया।

भारतीय जनजागरण में राजनीतिक न्याय की भूख स्वतंत्रता आंदोलन ने पैदा की। इसी के समानांतर सामाजिक और आर्थिक अन्यायों से मुक्ति पाने का सपना सामाजिक न्याय और आर्थिक समता से जुड़ी विचारधारा, आंदोलनों और संगठनों ने पैदा किया।

डॉ आंबेडकर के योगदानों के मूल्यांकन की हर कोशिश में यह अद्भुत सच सामने आता है कि उन्होंने इन तीनों प्रकार के स्वराज के लिए जरूरी आत्म-चिंतन और सांविधानिक समाधान की जरूरत को पूरा करने में अतुलनीय योगदान किया है। डॉ आंबेडकर के बारे में तीन प्रकार की मनोवृत्ति से हम सब अवगत हैं।

अधिकांश लोग उनको भारतीय संविधान का मुख्य शिल्पी मानते हैं। भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास के जानकारों में इसको लेकर व्यापक सहमति है कि करीब 300 सदस्यों वाली संविधान सभा में 1946 से 1949 के बीच में सबसे ज्यादा जिम्मेदारी से डॉ आंबेडकर ने अपनी भूमिका का निर्वाह किया था।

दूसरी तरफ, भारतीय जाति-व्यवस्था से जुडे़ आंदोलनों में उनको एक महान समाज विज्ञानी और समाज सुधारक का दर्जा प्राप्त है। तीसरा समुदाय उन लोगों का है, जिन्होंने डॉ आंबेडकर की प्रेरणा से धर्म-परिवर्तन किया और बौद्ध भारत का हिस्सा बने। 
इन तीनों छवियों को मिलाकर जो तस्वीर उभरती है, वह हमें आंबेडकर की जीवन-यात्रा के प्रति आकर्षित करती है।

ऐसा इसलिए भी, क्योंकि एक साधारण फौजी पिता और निरक्षर मां के अनेक बच्चों के बीच जन्म से शुरू हुई उनकी जीवन-यात्रा मामूली पाठशाला में अक्षर-ज्ञान प्राप्त करने के बाद भारत, ब्रिटेन, जर्मनी व अमेरिका के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों की उच्चतम उपाधियों तक पहुंचती है।

दूसरी तरफ, राजनीति के तमाम अंतर्विरोधों को अपनी सूझ-बूझ से सुलझाते हुए ब्रिटिश वायसराय के सलाहकारों की अग्रिम पंक्ति में शामिल होने के बावजूद अगले चार वर्ष में पहले संविधान सभा और फिर स्वाधीन भारत के पहले मंत्रिमंडल के शिखर व्यक्तित्वों के तौर पर सम्मानित होने का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। 


अब अगर हम ज्ञानसाधक के रूप में उनको देखें, तो उनकी रचनाओं का दायरा हमें चमत्कृत करता है। धर्मशास्त्रों से लेकर आधुनिक देशों के संविधान तक, हिंदू धर्म से लेकर इस्लाम, ईसाई, सिख और बौद्ध धर्म के बारे में आध्यात्मिक सिद्धांतों का गहन विश्लेषण, जाति-व्यवस्था से लेकर स्त्री-पुरुष की गैर-बराबरी और हिंदू-मुस्लिम दंगों तक का समाज वैज्ञानिक विश्लषेण और स्वाधीनोत्तर भारत के राष्ट्र-निर्माण के लिए जरूरी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व तकनीकी उपायों की प्रस्तुति यदि किसी एक व्यक्ति में दिखती है, तो वह सिर्फ आंबेडकर हैं।


इस गौरव-गाथा से यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि उनकी जिंदगी छोटी सफलताओं से बड़ी सफलताओं की ओर लगातार बढ़ते जाने का आख्यान है। उनको जनता की राजनीति में, विशेषकर चुनाव के चक्रव्यूह में बहुत कम मौकों पर सफलता मिली। भारतीय संविधान सभा से लेकर लोकसभा तक के चुनावों में विरोधी उनको हराने में सफल रहे।

दलितों के साथ श्रमजीवियों की एकता का उनका प्रयास न सिर्फ पूंजीपतियों और जातिवादियों, बल्कि वामपंथियों के असहयोग से असफल हुआ। हिंदुओं के बीच में जाति संबंधी पारंपरिक अन्याय को दूर करने के उनके आह्वान को प्रभु जातियों ने अनसुना किया।

दलितों के बीच भी निर्धन और निरक्षर स्त्री-पुरुषों की तुलना में पढ़-लिखकर साधन संपन्न हुए दलित मध्यम वर्ग से बाबा साहब बेहद निराश हुए। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाएं भी निकालीं, मगर साधन के अभाव में ज्यादातर की अकाल मृत्यु हो गई। उनका राजनीतिक संगठनकर्ता के रूप में भी विशेष सफलता का इतिहास नहीं है।

इसलिए, भारत की नई पीढ़ी को आंबेडकर की जिंदगी से असफलताओं के बीच सफलता की रचना और चौतरफा विरोध के बावजूद आत्मबल और ज्ञान-बल के जरिये समर्थन का निर्माण करना सीखना चाहिए। आंबेडकर अपने समय में सैद्धांतिक दृढ़ता और व्यावहारिक लचीलेपन का अद्भुत उदाहरण भी थे।


इधर कुछ राजनीतिक दलों ने बाबा साहब को अपनी कुरसी की छतरी बनाने की कोशिश कर एक दिलचस्प बहस को आगे बढ़ाया है। 1960 के दशक में उनके कर्मयोग की आधार-भूमि महाराष्ट्र में विश्वविद्यालय का नामकरण उनके नाम पर करना व्यापक सामाजिक उथल-पुथल का कारण बन गया था।

मगर अब पंजाब जैसे सुदूरवर्ती प्रदेश में सत्ता में आई एक नई पार्टी ने मुख्यमंत्री की छतरी के रूप में महात्मा गांधी की तस्वीर की जगह भगत सिंह और बाबा साहब की तस्वीर लगाने का फैसला करके एक नया समीकरण बनाने की चेष्टा की है। एक क्रांतिकारी और एक संविधानवादी का गठजोड़ बनाया गया है।

एक नास्तिक और एक बौद्ध धर्म के अनुयायी को मिलाया गया है। इसमें क्या बाजीगरी है, यह तो कुछ समय बाद ही पता चलेगा, लेकिन अगर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापक भगत सिंह और अखिल भारतीय परिगणित जाति संघ और रिपब्लिकन पार्टी जैसे समतामूलक संगठनों के संस्थापक बाबा साहब की तस्वीरों से ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’, ‘पूंजीवाद का नाश हो’, ‘समाजवाद जिंदाबाद’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसे नारे याद कराने की कोशिश हो, तो इसमें किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। 

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