सांसों में ज़हर
वह रिपोर्ट देश की राजधानी से राज चलाने वाले नीति-नियंताओं को शर्मसार करने वाली है कि राष्ट्रीय राजधानी बीते साल में दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी रही है। यह भी दुखद है कि दुनिया के शीर्ष खराब गुणवत्ता वाले पचास शहरों में 35 भारत के हैं।
निस्संदेह, स्विस संगठन आईक्यूएयर की रिपोर्ट नीति-नियंताओं की आंख खोलने वाली है। इसी बीच एक चौंकाने वाली अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण से दिल के दौरे का खतरा 43 फीसदी तक बढ़ जाता है।
खतरनाक निष्कर्ष यह भी, अध्ययन में पाया गया कि प्रदूषण की मार औसत उम्र सात साल तक घटा देती है। डेनमार्क यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन के पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट की स्टडी बताती है कि किसी प्रदूषित शहर में तीन साल रहने वाली महिलाओं में हार्ट अटैक का खतरा 43 फीसदी तक बढ़ जाता है।
यह निष्कर्ष 15 से बीस साल के अध्ययन के बाद निकाला गया। वहीं दूसरी ओर यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट का विश्लेषण कहता है कि वायु प्रदूषण से भारत में लोगों की उम्र सात साल कम तो होने की आशंका है।
दूसरी ओर यदि पर्यावरण संरक्षण के विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों का पालन किया जाये तो पांच साल से अधिक आयु बढ़ाई जा सकती है। यह मानवता के लिये चिंता की बात है कि दुनिया में प्रदूषण के चलते हर साल सत्तर लाख मौतें होती हैं।
जहां तक प्रदूषण से होने वाली आर्थिक क्षति का प्रश्न है तो भारत में वार्षिक रूप से सवा ग्यारह लाख करोड़ रुपये का नुकसान प्रदूषण के चलते होता है।
निस्संदेह, यह आंकड़ा डराने वाला है और नीति-नियंताओं को सचेत करता है कि प्रदूषण की समस्या से निबटने के लिये युद्ध स्तर पर प्रयास किये जाने का वक्त आ गया है।
टुकड़ों-टुकड़ों में किये जाने वाले प्रयासों के बजाय इस समस्या को समग्र रूप से देखा जाना चाहिए। इसके लिये नागिरकों के स्तर पर व्यापक जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए।
यह विडंबना ही है कि राष्ट्रीय राजधानी के लगातार चौथे साल दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी होने के बावजूद सरकार के स्तर पर चुनौती से मुकाबले के व्यापक कदम नहीं उठाये गये हैं।
चिंता की बात यह है कि वर्ष 2021 में पीएम 2.5 की मात्रा में साढ़े चौदह फीसदी की वृद्धि पायी गई। वहीं यह भी हमारी चुनौती है कि दुनिया के शीर्ष पचास प्रदूषित शहरों में 35 भारत के ही हैं।
जो यह भी बताता है कि बीते सालों में वायु गुणवत्ता में सुधार के प्रयास सिरे नहीं चढ़ रहे हैं। यही वजह है कि देश के 48 फीसदी शहरों में प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों की तुलना में दस गुना अधिक है।
सही मायनों में यह स्थिति सत्ताधीशों के लिये वेकअप कॉल है जो बता रही है कि लोग कितनी प्रदूषित हवा में जीवन यापन को मजबूर हैं।
यह तथ्य किसी से नहीं छिपा है कि इस प्रदूषण में हमारी जीवन शैली व विलासिता की वस्तुओं की बड़ी भूमिका है। ध्यान रखना होगा कि शहरी हवा में घुलते प्रदूषण में वाहनों के प्रदूषण का बड़ा योगदान है।
ऐसे में वाहनों की बिक्री बढ़ाते समय उन सुधारात्मक उपायों पर खास ध्यान देना होगा जो हवा में प्रदूषण का जहर घोलते हैं।
निस्संदेह मानव सेहत पर घातक असर डालने वाले प्रदूषण के विस्तार में जलवायु परिवर्तन के कारकों की भी भूमिका है। साथ ही हमें स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने की जरूरत है।
दरअसल, ईंधन की गुणवत्ता से भी प्रदूषण को बढ़ावा मिलता है। ऐसे में यदि हम इलेक्ट्रॉनिक वाहनों तथा अक्षय ऊर्जा से चलने वाले सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा दें तो किसी सीमा तक प्रदूषण घटाने में मदद मिल सकती है।
लोगों को साइकिल चलाने, पैदल चलने व सार्वजनिक वाहनों के उपयोग के लिये प्रेरित किया जाना वक्त की जरूरत है जिसके लिये बुनियादी ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
इसमें दो राय नहीं कि हम विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया वायु गुणवत्ता मानकों के अनुरूप स्वस्थ परिवेश उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं, लेकिन इस दिशा में गंभीर पहल करनी भी जरूरी है।
बहरहाल, इस दिशा में सरकारों को युद्ध स्तर पर प्रयास करने होंगे और इसमें नागरिकों को जागरूक करने की भी सख्त जरूरत है।