आतंक की वापसी

अमेरिका व नाटो सेनाओं की वापसी के कुछ ही दिनों बाद काबुल में निर्वाचित सरकार का पतन और तालिबान का कब्जा पूरी दुनिया को स्तब्ध करने वाला है। अफगानिस्तान में यह मानवीय संकट कितना भयावह है, काबुल हवाई अड्डे पर लोगों की देश से बाहर निकलने वाली भीड़ की बेताबी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है।

रक्तरंजित अतीत वाले तालिबान के भय से लोग अमेरिकी सैन्य जहाजों के पहियों पर लटक कर भाग जाने को बेहतर समझ रहे हैं, कुछ की आसमान से गिरकर मौत भी हो चुकी है। पूरा अफगानिस्तान असुरक्षा से भयाक्रांत है और जिनके पास बाहर निकलने के लिये कोई साधन नहीं हैं वे घरों में कैद हो गये हैं।

लूटपाट और हिंसा की खबरें आ रही हैं। खासकर कामकाजी महिलाएं घरों में कैद हो गई हैं और स्कूल-कालेज बंद हो चुके हैं। दशकों से विश्व की महाशक्तियों की शतरंजी चालों का केंद्र बने अफगानिस्तान में रक्तपात का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी पर आरोप लग रहे हैं कि वे अपनी जनता को संकट में छोड़कर विदेश भाग गये हैं। लेकिन दुनिया को वह दौर याद होगा जब वर्ष 1996 में सत्ता पर काबिज होते वक्त तालिबान ने पूर्व राष्ट्रपति नबीबुल्लाह को संयुक्त राष्ट्र परिसर में शरण लेने के प्रयास के वक्त बाहर खींचकर क्रूरता से मार दिया था।

तालिबान के रक्तपात व हिंसा के इतिहास को देखते हुए लोगों में इतना भय है कि वे भागने के तमाम विकल्पों पर किस्मत आजमा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र भी पड़ोसी राष्ट्रों से शरणार्थियों के लिये सीमा खुली रखने की अपील कर रहा है, लेकिन हकीकत बेहद जटिल बनी हुई है। इस्लामिक कानूनों की कठोर व्याख्या करने वाले तालिबान के आने वाले शासन को लेकर अविश्वास व भय का वातावरण बना है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि पिछले दो दशक में अफगान महिलाओं ने लैंगिक समानता, शिक्षा व कार्य के जो अधिकार हासिल किये थे, वे एक झटके में समाप्त हो जाएंगे।

हालांकि, तालिबान वैश्विक जनमत पाने के लिये महिलाओं के अधिकारों व शिक्षा पाने के हक की वकालत कर रहा है, लेकिन उनके अतीत को देखकर विश्वास नहीं होता। इस्लामिक कानूनों की कठोर व्याख्या करने वाले तालिबान से उदार रवैये की उम्मीद कम ही है। यदि अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ता है तो ही बेहतर हालात की उम्मीद की जा सकती है।

फिलहाल दुनिया अफगानिस्तान के कट्टरपंथियों के हाथ में चले जाने से स्तब्ध है। खासकर भारत जैसे देश तो अधिक व्यथित हैं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के संवर्धन में लगे थे। एक उदारवादी लोकतांत्रिक ताकत के रूप में भारत ने अफगानिस्तान में शिक्षा, सिंचाई, बिजली के वैकल्पिक साधनों तथा लोकतांत्रिक प्रतीकों को स्थापित करने के लिये जो अरबों डॉलर खर्च किये थे, उसके बट्टेखाते में जाने की आशंका बलवती हुई है।

ऐसा करके भारत ने आम अफगानियों का तो दिल जीता, लेकिन पाकपरस्त तालिबान से कोई उम्मीद बेमानी है। अफगानिस्तान के विकास में लगी दुनिया की प्रतिभाएं जिस तरह से पलायन कर रही हैं, उन्हें रोकने की कोशिश तो तालिबान सभ्यता में नहीं है। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम मुल्कों के वे लोग काबुल से बाहर निकलने की कोशिश में हैं जो अफगानिस्तान के विकास कार्यक्रमों में जुटे थे। भारत को याद है कि कंधार विमान अपहरण कांड के अलावा भारतीय दूतावास पर गाहे-बगाहे होने वाले हमलों में तालिबान की कैसी भूमिका रही है। भारत जैसे शांतिप्रिय देशों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि यदि अफगानिस्तान आतंक की नई पाठशाला बनता है तो दुनिया के लोकतांत्रिक देशों को आतंक की नई लहर का सामना करना पड़ सकता है। यह चिंता तालिबान से दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाले चीन व रूस की भी है क्योंकि उनके कुछ राज्यों में मुस्लिम चरमपंथी युद्ध छेड़े हुए हैं, जिन्हें तालिबान का साथ मिलने से उनकी चुनौती भयावह हो सकती है। ऐसी चिंता भारत की कश्मीर को लेकर भी है, जहां पाकिस्तान की मदद से तालिबान पटरी पर आती व्यवस्था को बाधित कर सकता है। 

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