गृहयुद्ध की ओर

अफगानिस्तान में बीस साल तक तालिबान के खिलाफ लड़ाई का केंद्र रहे सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बगराम एयरबेस को अमेरिकी सैनिकों द्वारा रातों-रात खाली करना बताता है कि वहां जल्दी ही विदेशी सेनाओं की वापसी का काम पूरा होने वाला है। बगराम एयरबेस के नये कमांडर जनरल असदुल्लाह कोहिस्तानी का तो आरोप था कि अमेरिकी सेना ने बगराम एयरबेस रात के अंधेरे में अफगानिस्तान को बताए बिना छोड़ा।

हालांकि अमेरिका ने सफाई देते हुए चंद अफगान नेताओं व सुरक्षा बलों को इसकी जानकारी होने की बात कही। चरमपंथियों के खिलाफ अमेरिका व नाटो का बड़ा ठिकाना रहे बगराम एयरबेस के खाली होने का निष्कर्ष यह भी है कि अब तालिबान के हौसले बुलंद होंगे। उनकी नजर सैन्य साजो सामान के खजाने इस एयरबेस पर भी होगी। दरअसल, अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा 11 सितंबर तक अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की घोषणा की गई थी।

इसी दिन अमेरिकी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले की बरसी भी है, जिसके बाद अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में चरमपंथियों के खिलाफ युद्ध के लिये उतरी थी। अभी अमेरिका समेत नाटो के कुछ हजार सैनिक वहां मौजूद हैं, जिनकी संख्या बाद में 650 रह जायेगी, जो दूतावासों व काबुल के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की सुरक्षा करेंगे। बहरहाल, अमेरिका व नाटो सैनिकों की वापसी से उत्साहित तालिबानी लगातार अपने कब्जे वाले इलाके बढ़ा रहे हैं। करीब एक-तिहाई अफगान जिलों पर अब उनका कब्जा है।

सरकारी सैनिकों ने इन इलाकों में कड़ा प्रतिरोध नहीं किया, बड़ी संख्या में सैनिकों ने तालिबान के सामने हथियार डाले हैं। करीब एक हजार सरकारी सैनिकों के ताजिकिस्तान भागने के समाचार हैं। तालिबान ने फिर इस्लामिक राज्य स्थापित करने की कवायद में अपने कब्जे वाले इलाकों में पुरुषों को दाढ़ी रखने, महिलाओं को घरों में रहने के निर्देश दिये हैं।

स्कूलों पर ताले पड़ने लगे हैं और सरकारी इमारतों पर हमले हो रहे हैं। महाशक्तियों की लड़ाई का केंद्र बने अफगानिस्तान से अमेरिका खाली हाथ लौट रहा है और इस देश को फिर से गृहयुद्ध के मुहाने पर छोड़ गया है। पूरी दुनिया के लिये यह चिंता की बात होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में फिर से अल-कायदा और आईएसआईएस की वापसी हो रही है जो विश्व शांति के लिये बड़ा खतरा बन सकते हैं। अतीत में भी तालिबान से अल-कायदा के गहरे रिश्तों का खेल पूरी दुनिया ने देखा।

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के जिस मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी सेना वर्षों तक अफगानिस्तान में तलाशती रही, वह बाद में पाकिस्तान के ऐबटाबाद में ऐशो-आराम फरमाता मिला। तालिबान के उदय-विस्तार में पाकिस्तान की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। यही वजह है कि अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते वर्चस्व के बाद भारत की चिंताएं गहरी हो गई हैं कि कहीं कट्टरपंथी आईएसआईएस को पाक खुफिया एजेंसियों की मदद से जम्मू-कश्मीर में चरमपंथ के विस्तार का मौका न मिल जाये।

वैसे भी भारत ने इस देश में अनेक महत्वपूर्ण विकास योजनाओं में भारी निवेश कर रखा है, जिसकी सफलता अब संदिग्ध हो सकती है। चिंता अफगानिस्तान में बसे कुछ हजार भारतीय मूल के लोगों की सुरक्षा की भी है। पहली बार भी भारत ने तालिबानी शासन को मान्यता नहीं दी थी, भविष्य में ऐसे कोई आसार नजर नहीं आते। निश्चय ही आने वाले समय में अफगानिस्तान में खूनी संघर्ष तेज होने वाला है।

निर्वाचित सरकार भी जल्दी से तालिबान के सामने झुकने वाली नहीं है और तालिबान भी पीछे हटने वाले नहीं हैं। तालिबान आत्मघाती हमले करके लोगों को भयभीत कर रहे हैं ताकि वे घर से बाहर न निकलें। बहरहाल, अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद निश्चित रूप से अफगानी सेना तालिबान के खिलाफ निहत्थी नजर आ रही है।

वैसे तालिबान के लिये यह लड़ाई जीतना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि सरकार ने अफगान सेना को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिये उसमें अफगान ताजिक, उजबेकों व शिया कमांडरों को भी जगह दी है। लेकिन विदेशी सेनाओं की वापसी से उनका मनोबल जरूर प्रभावित होगा। दुनिया को चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि अफगानिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की वापसी हो रही है।

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