टकराव का सिलसिला
दक्षिण के दो राज्यों (तमिलनाडु और केरल) की सरकारें अपने-अपने राज्यपालों से दो-दो हाथ कर रही हैं। तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक ने राज्यपाल आर एन रवि को हटाने के लिए एक याचिका तक दायर कर दी है, जबकि केरल में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को सत्ताधारी माकपा आरएसएस व भाजपा की कठपुतली बता रही है। यहां तो लगभग सभी दलों का मानना है कि राज्यपाल असांविधानिक तरीके से काम कर रहे हैं।
निर्वाचित राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों (राज्यपाल) के बीच टकराव दशकों पुराना मसला है। पारंपरिक रूप से राज्यपाल तब सुर्खियों में आते थे, जब राज्यों में सरकार के गठन में अड़चन आती थी, खासतौर से तब, जब खंडित जनादेश आता था। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर भी राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठते थे, जिसके तहत वे चुनी गई राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकते थे और केंद्रीय शासन लगा सकते थे।
हालांकि, यह स्थिति 1994 में एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ के फैसले के बाद बदल गई। अब राज्य सरकारों को कोई केंद्र सरकार अपनी मर्जी से बर्खास्त नहीं कर सकती। मगर अब केंद्र और राज्यों के संबंधों ने एक अलग मोड़ ले लिया है।
दरअसल, उन राज्यों में, जहां केंद्र का विरोध करने वाली पार्टियों की सरकार है, एक दिन भी ऐसा नहीं बीतता, जब राज्य सरकार पर राज्यपाल निशाना न साधते हों, और जवाब में मुख्यमंत्री व उनके मंत्रिमंडल के साथी मैदान में न उतर आते हों।
केरल में तो कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर राज्यपाल व राज्य सरकार के बीच टकराव इस कदर बढ़ गया है कि इसका असर अब विश्वविद्यालयों के दैनिक कामकाज पर दिखने लगा है। शिक्षाविदों को डर है कि यदि यह तनातनी यूं ही जारी रही, तो विश्वविद्यालयों की बेहतर पठन-पाठन संबंधी रैंकिंग प्रभावित हो जाएगी।
केरल और तमिलनाडु की सरकारों को जो बातें परेशान कर रही हैं, वे हैं राज्यपालों के बयान। राज्यपालों के शब्दों से भी जान पड़ता है कि उनका मकसद या तो केंद्र सरकार को खुश करना है या भाजपा की विचारधारा को आगे बढ़ाना। तमिलनाडु में विवाद तब गहरा गया, जब राज्यपाल आर एन रवि ने कहा कि हर देश का एक धर्म होता है और भारत इसका अपवाद नहीं है।
द्रमुक ने इस बयान को संविधान की भावना के खिलाफ माना। राज्यपाल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया गया, क्योंकि उन्होंने सनातन धर्म या समावेशी हिंदू धर्म की सराहना की थी। वरिष्ठ द्रमुक नेताओं ने यह कहकर हमला बोला कि सांविधानिक प्रमुख के रूप में कार्यरत राज्यपाल को धार्मिक मुद्दों पर अपनी राय नहीं जाहिर करनी चाहिए, भले यह उनका नितांत निजी मामला हो सकता है।
राज्यपाल रवि उस वक्त भी आलोचना के घेरे में आ गए, जब उन्होंने तमिल शास्त्रीय ग्रंथ तिरुक्कुलर के ‘आध्यात्मिक पहलुओं’ को ‘निहित स्वार्थों’ द्वारा जान-बूझकर कमतर किए जाने का आरोप लगाया, जिसे द्रमुक ने खुद पर हमला माना।
उधर, केरल में साल की शुरुआत से ही राज्यपाल के साथ राज्य सरकार की तनातनी शुरू हो गई थी। उस वक्त उन्होंने कृषि विधेयक पर चर्चा के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने में देरी की थी, जिसे बाद में केंद्र ने वापस भी ले लिया। हालांकि, राज्यपाल कार्यालय से हमले जारी रहे।
राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने तो एक शिक्षाविद को ‘गुंडा’ तक कह डाला और राज्य सरकार पर आरोप लगाया कि वह एक कार्यक्रम में उनकी सुरक्षा करने में विफल रही। अभी कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर दोनों में तनाव है।
एक तकनीकी विश्वविद्यालय की कुलपति (महिला) की नियुक्ति को रद्द करने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाकर राज्यपाल खान ने नौ अन्य कुलपतियों से भी इस्तीफे मांग लिए। उनके मुताबिक, इनकी नियुक्तियों में भी नियमों से खिलवाड़ किया गया। संभावित कुलपति के नामों की सूची केरल विश्वविद्यालय की सीनेट भेजती है, जिनमें से राज्यपाल को चयन करना होता है। मगर उनको केवल एक नाम भेजा गया था, जिसका उन्होंने विरोध किया था।
विश्वविद्यालयों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है। पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में तो राज्य सरकार ने राज्यपाल की भूमिका को खारिज करते हुए कुलपतियों को खुद नियुक्त करने का फैसला किया है। केरल में तब राज्यपाल ने अपनी सीमा का स्पष्ट उल्लंघन किया, जब उन्होंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर बताया कि वह उनके वित्त मंत्री के पद पर बने रहने से ‘खुश नहीं हैं’।
इसका अर्थ था कि वह उन्हें बर्खास्त करना चाहते हैं। इसने सियासी दलों को नाराज और एकजुट किया। कई संविधान विशेषज्ञों ने इस मसले में राज्यपाल की मुखालफत की है। उनके मुताबिक, संविधान के अनुसार, उन्हें मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना चाहिए। किसी मंत्री को नियुक्त अथवा बर्खास्त करने का विशेषाधिकार मुख्यमंत्री के पास है और इसमें राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं होती है।
इससे पहले एक समारोह में वित्त मंत्री ने कहा था कि कुछ लोग उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की कार्य-संस्कृति के आदी हैं, जो उन लोकतांत्रिक मूल्यों को नहीं समझ सकते, जिनमें केरल के विश्वविद्यालय काम करते हैं। राज्यपाल ने उनके इस बयान को भारत की एकता व अखंडता के खिलाफ माना था। देखा जाए, तो राज्यपाल को इस कदर आक्रामक होने की संभवत: जरूरत नहीं थी, क्योंकि इस तरह के राजनीतिक बयान परिस्थिति के अनुकूल दिए जाते रहे हैं।
बहरहाल, इन घटनाक्रमों के बाद भाकपा और माकपा ने राज्यपाल पद खत्म करने की अपनी पुरानी मांग को लेकर फिर से आवाज बुलंद की है। केंद्र व राज्य के संबंधों का अध्ययन करने वाले कई आयोगों ने भी इस बाबत गंभीर सिफारिशें की हैं, और राज्यपाल कार्यालय में सुधार के सुझाव दिए हैं।
मगर केंद्र उनकी अनदेखी करता रहा है, फिर चाहे सरकार किसी पार्टी की क्यों न हो। पुंछी आयोग का कहना है कि राज्य विधानमंडल के पास यह अधिकार होना चाहिए कि वह राज्यपाल के खिलाफ महाभियोग चला सके। राज्यपालों की नियुक्ति प्रक्रिया में मुख्यमंत्रियों को शामिल करने की सिफारिश तो कमोबेश सभी आयोगों ने की है। सरकारिया आयोग का मानना है कि जहां तक संभव हो, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति को ही राज्यपाल के पद पर नियुक्त करना चाहिए। यह आयोग किसी सक्रिय राजनेता की नियुक्ति के सख्त खिलाफ है।